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प्रतिबिम्बित होती है या झलकती है। इसीकारण आत्मविद्या को भी दर्पण के समान कार्य करनेवाली कहा गया है
“यद् विद्या दर्पणायते"
- (आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक 1) ऐसे निर्मलज्ञानस्वभावी होने से आत्मा को जगत्पति (तीनों लोकों का स्वामी) भी कहा है- “य आदर्श इवाभाति, स एव जगतां पतिः।"
-(आचार्य सोमदेव सूरि, यशस्तिलकचम्पू, 7/56) अर्थ :- जिसका आत्मा दर्पण के समान निर्मल प्रकाशित हो, वही जगत् का स्वामी है। __ आत्मस्वरूप निर्मल होते हुए भी संसारी मोही जीवों को उसके दर्शन नहीं होते. यह दृष्टि का दोष है, वस्तु का नहीं। इसे स्पष्ट करते हुए जैनाचार्य लिखते हैं
‘रायादिमलजुदाणं, णियप्परूवं ण दिस्सदे किं पि। समलादरसे रूवं, ण दिस्सदे जह तहा णेयं ।।'
-(आचार्य कुन्दकुन्द, रयणसार 90) अर्थ :- रागादि-मल से युक्त जीवों को अपना आत्मस्वरूप कुछ भी दिखाई नहीं देता। जैसे मलिन-दर्पण में रूप दिखाई नहीं देता, उसीप्रकार इसे समझना चाहिए।
'पश्यतोऽपि यथादर्शे, संक्लिष्टे नास्ति दर्शनं । तत्त्वं जले वा कलुषे, चेतस्युपहते तथा।।'
___-(चरक, शरीरस्थ., 1-55) अर्थ :- जिसप्रकार गन्दे शीशे या गन्दे जल में मुख दिखाई नहीं पड़ता, उसीप्रकार चित्त राग-द्वेष से विकृत होने से ज्ञान यथार्थ नहीं होता ।
आत्मा की चैतन्यशक्ति के दो आकार आचार्य भट्ट अकलंकदेव ने प्रतिपादित किए हैं और दोनों को दर्पण की उपमा दी है
चैतन्यशक्तेावाकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च । अनुपयुक्त-प्रतिबिंबाकारादर्शतलवत मानाकारः, प्रतिबिंबाकारपरिणतादर्शतलवत् ज्ञेयाकारः। तत्र ज्ञेयाकार: स्वात्मा, तन्मयत्वाद्, घटव्यवहारस्य ज्ञानाकार: परात्मा सर्वसाधारणत्वात् ।'
__-(आचार्य अकलंक, तत्त्वार्थ राजवार्तिक, 1-6-5) अर्थ :- चैतन्य-शक्ति के दो आकार होते हैं- ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार । प्रतिबिंब-शून्य दर्पण की तरह 'ज्ञानाकार' है, और प्रतिबिंब-सहित दर्पण की तरह 'ज्ञेयाकार'। इनमें ज्ञेयाकार स्वात्मा' है, क्योंकि घटाकार ज्ञान से ही घट-व्यवहार होता है, और ज्ञानाकार 'परात्मा' है; क्योंकि वह सर्वसाधारण है।
इनमें से ज्ञानाकार को अपनानेवाले 'ज्ञानी' कहे जाते हैं और ज्ञेयाकार के लोभी व्यक्तियों को 'अज्ञानी' कहा गया है। इसी बात को आचार्य मानतुंग स्वामी जल में
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)
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