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________________ 'आदर्श' और 'आत्मा' - श्रीमती रंजना जैन दर्पण अपनी निर्मलता एवं निष्पक्षता के कारण ही 'आदर्श' की संज्ञा को प्राप्त करता है। वह अपने में प्रतिबिम्बित होनेवाले पदार्थों को झलकाने के लिए उनके पास चलकर नहीं जाता है, और न ही उन पदार्थों को अपने पास बुलाता है; फिर भी उसके निर्मलता-गुण के कारण वे पदार्थ उसमें झलकते हैं। दर्पण की यह विशेषता ज्ञानस्वभावी आत्मा में अद्भुत-समानता रखती है। इसीलिए विदुषी लेखिका ने विविध-प्रमाणपूर्वक अपने इस आलेख में 'आदर्श' और 'आत्मा' की इस समानता को प्रभावी रीति से प्ररूपित किया है। -सम्पादक लोकजीवन में 'आदर्श' शब्द 'आइडियल' (Ideal) के अर्थ में अधिक-प्रचलित हो गया है। जबकि प्राचीन ग्रन्थों आदि में इसका सर्वाधिक प्रचलित अर्थ दर्पण/आईना/मुँह देखने का शीशा है। 'आङ्' उपसर्गपूर्वक 'दृश्' धातु से 'घञ्' प्रत्यय का विधान करने पर 'आदर्श' शब्द निष्पन्न होता है। इसका व्युत्पत्तिजन्य-अर्थ इसप्रकार किया जाता है“आङ् समन्तात् दर्शयति प्रकाशयति इति आदर्श:" अर्थात् जो पूरी तरह से प्रकट करे या दिखाए, वही 'आदर्श' है। चूंकि दर्पण में व्यक्ति अपने आप को देख पाता है, अत: दर्पण को 'आदर्श' कहा गया। किन्तु वास्तव में लोकालोक को पूर्णत: झलकाने की सामर्थ्य मात्र आत्मा में है; अत: 'आत्मा' ही वास्तव में 'आदर्श' संज्ञा के लिए सर्वथा उपयुक्त है। आत्मा की लोकालोकदर्शी-शक्ति के बारे में आचार्य कुन्दकुन्द 'पवयणसार' ग्रन्थ में लिखते हैं “आदा णाणपमाणं, णाणं णेयप्पमाणमुद्दिठें। णेयं लोयालोयं, तम्हा णाणं हु सव्वगदं ।।" - -(पवयणसार, गाथा 1/23) अर्थ :- आत्मा ज्ञानप्रमाण है, ज्ञान को ज्ञेयप्रमाण कहा गया है। ज्ञेय सम्पूर्ण लोकालोक है; इसलिए आत्मा लोकालोक के सभी पदार्थों का ज्ञाता या सर्वगत' है। इसी तथ्य को पुष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं"दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र" -(पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ।) अर्थ :- उस आत्मज्योति में दर्पण के तल (आईना) के समान सम्पूर्ण पदार्थमालिका 0036 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)
SR No.521370
Book TitlePrakrit Vidya 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size12 MB
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