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________________ उत्तुंग-हिमालय के हिम में, डग भरके पहुंचे पूज्य श्री, हिम में दिगंबर मुनि-काया, हतप्रभ रह गया राष्ट्र भारत, तप, दृढ़-निश्चय व ब्रह्मचर्य की . जग ने जानी महिमा महान् ।। हे पूज्य गुरु...... ।। 8।। शशि-से हिम में रवि-सी काया, या अग्निकुण्ड में कुंदन हो, कहा दसों दिशाओं ने मिलकर, उद्घोष किया जड़-चेतन ने, स्वीकारो विनयानत प्रणाम ।। हे पूज्य गुरु..... ।। 9।। गोमटेश-सहस्राभिषेक, स्थापना कुंद-कुंद भारती की, कुम्भोज बाहुबलि सामंजस्य, 'गोमट्टगिरि' पावन-सजन, इन सबके ही तो प्रेरक हो, उद्बोधक हो, संबोधक हो, कैसे बोलूँ महिमा महान् ।। हे पूज्य गुरु...... ।। 10।। वीर-निर्वाण पच्चीस सदी, अरु जैनधर्म का पावन-ध्वज, प्रभु बावनगजा, विश्ववंदनीय, नव-कृतियों के प्रेरक संबल ।। सब भक्ति-भाव से मौन मुखर, करें स्तवन, वंदन व गुणगान ।। हे पूज्य गुरु... ।। 11।। कोटि हताशों को सम्बल, व्यथित-प्रताड़ित को राहत, भय-क्रोध-काम से घिरे हुये जो, उनमें हो प्रेम-शांति-निर्झर, अपना लें वे, 'भक्तिपथ' महान् ।। हे पूज्य गुरु...... ।। 12 ।। बस एक याचना मेरी है, दे दो इतना-सा आत्मबल। हर स्थिति और परिस्थिति में, न धर्म तनँ, न कर्म तनँ, बढ़ता जाऊँ कर्तव्य-पथ पर, हो निर्विकार, हे पूज्यमान ।। हे पूज्य गुरु.... ।। 13 ।। लो राष्ट्रसंत, मेरे प्रणाम ।। कोटि-कोटि वंदन/प्रणाम । आचार्यश्री शत-शत प्रणाम ।। एक विशेष बात “अइसय पावी जीवा धम्मियपव्वेसु ते वि पापरया। ण चलंति सुद्ध धम्मा धण्णा कि वि पावपव्वेसु ।।" -(वही, गाथा 29) अर्थ :- जो अत्यन्त पापी जीव हैं वे धार्मिक पर्यों में भी पाप में लीन रहते हैं और | जो शुद्ध धर्मात्मा जीव हैं, वे किसी पाप पर्व में भी धर्म से चलित नहीं होते हैं। .. प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक) 40 35
SR No.521370
Book TitlePrakrit Vidya 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size12 MB
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