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________________ चन्द्रप्रभ भगवान की मूर्ति का निर्माण तथा कमलसिंह संघवी के सहयोग से एक शिखरबन्द मन्दिर का निर्माण और साथ ही मूर्तिप्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न कराया था। गोपाचल-दुर्ग का तीसरा मूर्ति-निर्माता था असपति साहू, जिसका पिता तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह का खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री था। ___अपने चार भाइयों में वह द्वितीय (मंझला) था। चतुर्विध-संघ का भार वहन करने से इसने 'संघपति की उपाधि प्राप्त की थी। विद्यारसिक, धर्मनिष्ठ एवं समाज का प्रधान होने के साथ-साथ वह कुशल राजनीतिज्ञ भी था। इसने श्रद्धावश अनेक जैनमूर्तियों एवं मंदिरों का निर्माण तथा उनकी प्रतिष्ठाएँ कराई थी। ____चौथा मूर्ति-निर्माता था संघाधिप नेमदास। इसकी 'भीखा' एवं 'माणिको' नाम की दो पत्नियाँ थी। यह योगिनीपुर का निवासी था तथा वहाँ के वणिक्-श्रेष्ठों में अग्रण्य और समकालीन राजा प्रतापरुद्र चौहान (वि.सं. 1056 के लगभग) द्वारा सम्मानित था। इसके छोटे, चतुर्थ भाई वीरसिंह ने गिरनार-यात्रा की थी। इसके पिता का नाम 'तोसउ' तथा वंश 'सोमवंश' के नाम से प्रसिद्ध था। नेमदास ने गोपाचल तथा अन्य कई स्थानों पर पाषाण एवं धातु की बहुत-सी मूर्तियों एवं गगनचुम्बी जिन-मंदिरों का निर्माण कराया था। रइधू का आशीर्वाद उसे प्राप्त था। अत: धार्मिक एवं साहित्यिक कार्यों में वे सदा इनके साथ रहते थे। महाकवि रइधू की प्रशस्तियों में इन तथ्यों की स्पष्ट जानकारी मिलती है। ___ महाकवि रइधू ने सहजपाल के पुत्र सहदेव संघपति को भी मूर्ति-प्रतिष्ठापक' कहा है लेकिन इसके सम्बन्ध में अन्य कोई विशेष-विवरण उपलब्ध नहीं होता। जो भी हो, वहाँ जैन-मूर्तियों का इतना अधिक निर्माण हुआ कि जिन्हें देखकर रइधू को 'अगणित' कहना ही पड़ा। राजा डूंगरसिंह एवं उनके पुत्र राजा कीर्तिसिंह, इन दोनों ने अपने राज्यकालों में कुल मिलाकर लगातार 33 वर्षों तक जैनमूर्तियों का निर्माण करवाने में हर प्रकार की सहायता प्रदान की थी। इस विषय में सुप्रसिद्ध इतिहासकार हेमचन्द्र राय के विचार ध्यातव्य हैं “सम्राट् बाबर जब गोपाचल दुर्ग में आया, तो इस मूर्तिकला-वैभव से क्रोधाभिभूत हो उठा.तथा उसने उनको तोड़े जाने का आदेश दिया", इसका कनिंघमकृत अंग्रेजी-अनुवाद पठनीय है। इन मूर्तियों को आधुनिक दृष्टि से प्रकाश में लाने का सर्वप्रथम श्रेय फादर माण्टसेरांट को है, जो एक योरोपियन घुमक्कड़ था तथा जिसने सम्राट अकबर के समय में भारत की पदयात्रा के प्रसंग में सूरत से दिल्ली जाते समय गोपाचल-दुर्ग की जैनमूर्तियों के दर्शन किए थे और अपनी डायरी में उनका विस्तृत विवरण अंकित किया था। उसने तथा जनरल कनिंघम ने इन मूर्तियों की बड़ी प्रशंसा की है। भारत सरकार प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक) 0027
SR No.521370
Book TitlePrakrit Vidya 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size12 MB
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