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उत्तरमध्यकालीन इतिहास, साहित्य एवं
कला का संगम तीर्थ : गोपाचल
___-प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन
गोपाचल (वर्तमान ग्वालियर) जैन इतिहास, संस्कृति एवं कला का प्रधान-केन्द्र रहा है। उसका सुदूर अतीत तो स्वर्णिम रहा ही, मध्यकाल एवं विशेषत: 15वीं-16वीं सदी का काल ऐतिहासिक महत्त्व का रहा। इस युग में जहाँ एक ओर अनेक विशाल एवं उत्तुंगजिनालयों, जैन-विहारों, अगणित जैन-मूर्तियों, तथा अनेक स्वाध्याय-शालाओं का निर्माण कराया गया, तो दूसरी ओर सैकड़ों मौलिक जैनग्रन्थों का प्रणयन किया गया और अनेक प्राचीन जीर्ण-शीर्ण, नष्ट-भ्रष्ट हस्तलिखित गौरव-ग्रन्थों का पुनर्लेखन, पुनरुद्धार, प्रतिलिपि-कार्य तथा उनके संरक्षण का केन्द्र भी बना रहा। ___भारत के प्रधान-नगरों में गोपाचल की अपनी विशेष ऐतिहासिक पहिचान होने पर भी वह किन्हीं अदृश्य कारणों से धूमिल होती गई। आधुनिक इतिहासकारों ने भी गोपाचल नगर तथा उसके मध्यकालीन शासकों, महान् कलाकारों, साहित्यकारों तथा गोपाचल-राज्य को सुरक्षा, समृद्धि एवं ख्याति प्रदान करानेवाले श्रेष्ठियों को विस्मृत कर दिया और इसप्रकार भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण उज्ज्वल-अध्याय अन्धकाराच्छन्न ही रह गया।
किन्तु अहर्निश स्मरणीय है वह महाकवि रइध, जिसने गोपाचल की धरती पर बैठकर यह अनुभव किया कि मौसमी दुष्प्रभावों, विदेशी आक्रमणों तथा अराजकता की आँधियों में हमारी वन्दनीय जिनवाणी के अनेक गौरव-ग्रन्थ नष्ट-भ्रष्ट, लुप्ट-विलुप्त हो चुके हैं तथा हमारी आस्था एवं विश्वास की अनेक पवित्र धरोहरें–मन्दिर एवं मूर्तियाँ भी ध्वस्त एवं क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। इनकी क्षतिपूर्ति कैसे हो सकेगी? उसकी अन्तरात्मा ने उसे जो उत्तर दिया और उसके प्रयत्नों से उसी के जीवनकाल में जैसे-जैसे संरचनात्मक कार्य गोपाचल में सम्पन्न किए गए, उन्हीं की संक्षिप्त-चर्चा ऊपर की गई है। _महाकवि रइधू (वि.सं. 1440-1536) ऐसे महाकवि हैं, जिन्होंने अपने जीवनकाल में सन्धिकालीन अपभ्रंश तथा प्राकृत एवं समकालीन हिन्दी में 30 ग्रन्थों से भी अधिक की रचना की, किन्तु उनमें से अद्यावधि 23 ग्रन्थ ही उपलब्ध हो सके हैं। इन ग्रन्थों की
प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)
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