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अनेक विशेषताएँ हैं, किन्तु उनमें भी एक विशेष ऐतिहासिक महत्त्व की बात यह हैं कि उनके प्रायः प्रत्येक ग्रन्थ के आदि एवं अन्त में लम्बी-लम्बी प्रशस्तियाँ प्राप्त होती हैं; जिनमें पूर्ववर्त्ती एवं समकालीन साहित्य एवं साहित्यकारों, राजाओं, कलाकारों एवं नगरश्रेष्ठियों के कार्यकलापों तथा समकालीन ऐतिहासिक घटनाओं के उल्लेख एवं सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों के क्रमबद्ध-विवरण उपलब्ध होते हैं। गोपाचल-दुर्ग में जो अगणित जैन-मूर्तियाँ उपलब्ध हैं, किसकी प्रेरणा से उनका निर्माण कराया गया ? उनका प्रतिष्ठाचार्य कौन था? उनके निर्माता कौन थे? समकालीन राज्यों ने उनके निर्माण एवं प्रतिष्ठा-कार्यों में क्या सहायता प्रदान की? इन सभी तथ्यों का प्रामाणिक एवं रोचक वर्णन इन प्रशस्तियों में उपलब्ध है ।
पूर्ववर्ती एवं समकालीन भट्टारकों की क्रमबद्ध - नामावली एवं उनके कार्य-कलापों की एक लंबी-श्रृंखला भी उनमें उपलब्ध है। ये सभी वर्णन विश्वसनीय एवं प्रामाणिक इसीलिए हैं, क्योंकि समकालीन तोमरवंशी राजा स्वयं महाकवि रइधू के परम भक्त थे तथा प्रायः सभी नगरश्रेष्ठिगण, एक ओर महाकवि के परमभक्त एवं अनुयायी थे, तो दूसरी ओर, वे राजाओं की मन्त्री परिषद के विश्वस्त एवं प्रतिष्ठित मन्त्री, सामन्त तथा आर्थिक सहायक भी। राजा डूंगरसिंह की विशेष - प्रार्थना पर महाकवि रइधू स्वयं भी गोपाचल - दुर्ग में निवास करते थे । अतः प्रत्यक्षदृष्टा होने के कारण वे उस समय की प्रायः समस्त घटनाओं एवं परिस्थितियों से पूर्णतया परिचित रहे होंगे ।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि यदि गोपाचल - राज्य का उत्तरमध्यकालीन प्रामाणिक इतिहास तैयार करना हो, वहाँ के नरेशों, भट्टारकों एवं जैनसमाज का इतिहास तैयार करना हो, गोपाचल-दुर्ग की जैन - मूर्तियों का इतिहास तैयार करना हो, वहाँ के अग्रवालों, खण्डेलवालों, पद्मावती-पोरवालों जैसवालों परवारों एवं गोलालारों की वंशावलियों तथा उनके कार्यकलापों की जानकारी प्राप्त करना हो; तो रइधू- साहित्य का अध्ययन करना नितान्त आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है ।
महाकवि रइधू ने जिस गौरवशाली - साहित्य का निर्माण किया, और अपने असाधारण पाण्डित्य, इतिहास-संस्कृति एवं समकालीन लोक-जीवन का तलस्पर्शी ज्ञान तथा समाज एवं राष्ट्र को साहित्य, संगीत और कला के प्रति जागरुक बनाने की क्षमता का परिचय दिया, स्थानाभाव के कारण उस पर विस्तारपूर्वक यहाँ विचार करना संभव नहीं; किन्तु यहाँ एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे आभास मिलेगा कि गोपाचल का एक प्रतिष्ठित महामन्त्री कवि रइधू का कितना बड़ा भक्त था तथा रइधू के सान्निध्य से वह कितना बड़ा स्वाध्याय एवं कलाप्रेमी बन गया एवं गोपाचल को महनीय तीर्थक्षेत्र बनाने में उसका कितना महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। इससे महाकवि के प्रभावशाली व्यक्तित्व पर भी प्रकाश पड़ता है। तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह (वि. सं. 1481-1510) का
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प्राकृतविद्या + जनवरी - जून 2003 (संयुक्तांक )