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कटाव द्रष्टव्य है। उत्तर-मध्यकालीन भारतीय स्थापत्य का रोचक-स्वरूप यहाँ देखने को मिलता है।
गुजरात, कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश के अनेक भागों में मध्यकालीन जैन-स्थापत्य का विकास द्रष्टव्य है। दक्षिण में विजयनगर राज्य के समय तक स्थापत्य और मूर्तिकला का विकास साथ-साथ होता रहा।
जैन-स्थापत्य-कला का प्राचुर्य देवालय-नगरों' में देखने को मिलता है। ऐसे स्थलों पर सैकड़ों मन्दिर पास-पास बने हुए हैं।
गिरनार, शत्रुजय, आबू, पपौरा, अहार, थूबोन, कुण्डलपुर, सोनागिरि आदि अनेक स्थलों पर जैन मन्दिर-नगर विद्यमान हैं। ऐसे मन्दिर-नगरों के लिए पर्वत-श्रृंखलाएँ विशेषरूप से चुनी गयीं। ...
__ आधुनिक युग में जैन स्थापत्य की परम्परा जारी मिलती है। वास्तु के अनेक प्राचीन लक्षणों को आधुनिक कला में भी हम रूपायित पाते हैं। भारतीय संस्कृति तथा ललितकलाओं के इतिहास के अध्ययन में जैन-स्थापत्य-कला का निस्संदेह महत्त्वपूर्ण-स्थान है।
- ('भगवान् महावीर स्मृति ग्रन्थ', सम्पादक-डॉ. ज्योति प्रसाद जैन,
प्रकाशक श्री महावीर निर्वाण समिति, उत्तर प्रदेश)
धर्म क्या है? "पुच्छियउ धम्मु जइवज्जरइ, जो सयलहं जीवह दय करइ । जो अलियवयं पणु परिहरइ, जो सच्च सउच्चे रइ करइ ।। वज्जइ अदत्तु णियपियरवणु, जो ण घिवइ परकलते णयणु। जो परहणु तिणसमाणु गणइ, जो गुणवंतउ भत्तिए थुणइ ।। एयई धम्महो अंगई जो पालइ अविहगई। सो जि धम्मु सिरितुंगइ, अण्णुकि धम्म हो सिंगइ।।"
-(महापुराण) अर्थ :- धर्म का स्वरूप क्या है? जो सम्पूर्ण जीवों पर दया करे, मिथ्यावचन का परित्याग करे, जो सत्य पर रति करे, अदत्त का ग्रहण करे, अपनी स्त्री से सन्तोष रखते हुए परकलत्र पर दृष्टिपात भी न करे, परधन को तृणवत् गिने तथा गुणवान् का समादर करे। धर्म के ये अंग हैं। जो इनका यथावत् पालन करते हैं, वे धर्मशिरोमणि हैं, अथवा वह धर्म सर्वोत्तम है। इनसे भिन्न धर्म के क्या शंग (सींग) होते हैं? अर्थात् धर्म का स्वरूप सहज-सुगम है, उसमें विचित्रताएँ खोजने की क्या आवश्यकता है?
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प्राकृतविद्या जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)