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उनसे भी इस कदम आगे निकल गये थे। दार्शनिक राजा भरत के बारे में जितनी बातें पुराणों में दर्ज है, वे जाहिर है कि हमें कहीं पहुँचाती नहीं। पर उनके नाम के साथ जड़' शब्द जुड़ा होने और उनके नाम पर इस देश का नाम पड़ जाने में जरूर कोई रिश्ता रहा है, जिसे हम भूल चुके हैं और जिसे और ज्यादा खंगालने की जरूरत है। आज चाहे हमारे पास वैसा जानने का कोई साधन नहीं है और न ही जैन-परम्परा में मिलनेवाला भरत का वर्णन इसमें हमारी कोई बड़ी सहायता करता है। पर राजा भरत ने खुद को भुलाकर, जड़ बनाने की हद तक भुलाकर देश और आत्मोत्थान के लिए कोई विलक्षण काम किया कि देश को ही उनका नाम मिल गया। चूँकि मौजूदा विवरण काफी नहीं, आश्वस्त नहीं करते, कहीं पहुँचाते भी नहीं, पर अगर जैन और भागवत -दोनों परम्पराएँ भरत के नाम पर इस देश को 'भारतवर्ष' कहती हैं, तो उसके पीछे की विलक्षणता की खोज करना विदेशी विद्वानों के वश का नहीं, देशी विद्वानों की तड़पन इसकी प्रेरणा बन सकती है। पर क्या कहीं न कहीं इसका संबंध इस बात से जुड़ा नजर नहीं आता कि यह देश उसी व्यक्तित्व को सिर आँखों पर बिठाती है, जो ऐश्वर्य की हद तक पहुँच कर भी जीवन को सांसारिक नहीं; बल्कि आध्यात्मिक साधना के लिए होम कर देता है?
पर जिस 'भारतवर्ष' के नामकरण के कारण को हम पूरी संतुष्टि देनेवाले तर्क की सीमा-रेखा तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं, उस भारत का भव्य और भावुकता से सराबोर रंगबिरंगा-विवरण हमारे पुराण-साहित्य में मिल जाता है, जिसमें 'वन्दे मातरम्' और 'सारे जहां से अच्छा' गीतों जैसी अद्भुत ममता भरी पड़ी है। 'विष्णु पुराण' कहता है कि उसी देश का नाम 'भारतवर्ष' है, जो समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में हैउत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेः चैव दक्षिणम् । वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति: (2, 3, 1)। इसमें खास बात यह है कि इसमें जहाँ भारत-राष्ट्र का वर्णन है, वहाँ हम भारतीयों को 'भारती' कहकर पुकारा गया है। भारत के चारों हिस्सों में खड़े पर्वतों का विवरण इससे ज्यादा साफ क्या होगा— “महेन्द्रो मलयो सह्य: शुक्तिमान् ऋक्ष-पर्वत: । विंध्यश्च पारियात्रश्च सप्तैते कुलपर्वता:। -(विष्णु पुराण 2, 3, 3)।
फिर अनेक नदियों के नाम हैं, पुराने भी और वे भी, जो आज तक चलते आ रहे हैं। भारत-शरीर के इस सपाट-वर्णन के बाद कैसे 'विष्णु पुराण' अपने पाठकों को हृदय और भावना के स्तर पर भारत से जोड़ता है, वह वास्तव में पढ़ने लायक और रोमांचकारी है। कवि कहता है कि हजारों जन्म पा लेने के बाद ही कोई मनुष्य पुण्यों का ढेर सारा संचय कर भारत में जन्म लेता है— “अत्र जन्मसहस्राणां सहस्रैरपि संततम् । कदाचिद् लभते जन्तुर्मानुषं पुण्यसंचयात् ।” – (विष्णु 2, 3)। स्वर्ग में बैठे देवता भी गा रहे हैं, कि वे धन्य हैं जो भारत-भूमि के किसी भी हिस्से में जन्म पा जाते
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प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)