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________________ हैं— “गायन्ति देवा: किल गीतकानि, धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे । स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते, भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात् ।" – (वि.पु. 2, 3)। क्या किसी राष्ट्रगान से कम भावुकता इन पद्यों में है? ठीक इसीतरह से सरल लय और बांध देनेवाली भावुकता से भरा इस देश का वर्णन 'भागवत पुराण' (स्कन्ध 5, अध्याय 14, श्लोक 21-28) के आठ श्लोकों में मिलता है, जिन्हें अगर हमारे संविधान-लेखकों ने पढ़ लिया होता, तो उन्हें राष्ट्रगान की खोज के लिए भटकना न पड़ता। जाहिर है कि ऋषभपुत्र भरत के नाम पर जब इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा होगा, तो धीरे-धीरे पूरे देश को यह नाम स्वीकार्य हो पाया होगा। एक सड़क या गली का नाम ही स्वीकार्य और याद होने में वर्षों ले लेता है, तो फिर एक देश का नाम तो सदियों की यात्रा पा करता हुआ स्वीकार्य हुआ होगा, वह भी तब जब संचार-साधन आज जैसे तो बिलकुल ही नहीं थे। पर लगता है कि 'महाभारत' तक आते-आते इस नाम को अखिल भारतीय स्वीकृति ही नहीं मिल गई थी, बल्कि इसके साथ भावनाओं का रिश्ता भी भारतीयों के मन में कहीं गहरे उतर चुका था। ऊपर कई तरह के पुराण-संदर्भ तो इसके प्रमाण हैं ही, खुद 'महाभारत' के 'भीष्म पर्व' के नौवें अध्याय के चार श्लोक अगर हम उद्धृत नहीं करेंगे, तो पाठकों से महान् अन्याय कर रहे होंगे। धृतराष्ट्र से संवाद करते हुए उनके मंत्री संजय, जिन्हें हम आजकल थोड़ा हल्के मूड में महाभारत का युद्ध-संवाददाता' कह दिया करते हैं, कहते हैं अत्र ते वर्णयिष्यामि वर्ष भारत भारतम् । प्रियं इन्द्रस्य देवस्य मनो: वैवस्वतस्य च ।। पृथोश्च राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाको: महात्मनः । ययाते: अम्बरीषस्य मान्धातुः नहुषस्य च ।। सथैव मुचुकुन्दस्य शिवे: औशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा।। अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम् । सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम् ।। अर्थात् हे महाराज धृतराष्ट्र ! अब मैं आपको बताऊँगा कि यह भारतदेश सभी राजाओं को बहुत ही प्रिय रहा है। इन्द्र इस देश के दीवाने थे, तो विवस्वान के पुत्र मनु इस देश से बहुत प्यार करते थे। ययाति हों या अम्बरीष, मान्धाता रहे हों या नहुष, मुचुकुन्द, शिवि, ऋषभ या महाराज नृग रहे हों, इन सभी राजाओं को तथा इनके अलावा जितने भी महान् और बलवान राजा इस देश में हुए, उन सबको भारतदेश बहुत प्रिय रहा है। -(साभार उद्धृत, नवभारत टाइम्स, 29 मई 1994, पृष्ठ 3) प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक) 0015
SR No.521370
Book TitlePrakrit Vidya 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size12 MB
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