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________________ एवं आगम के ज्ञान में आचार्यों ने मात्र प्रत्यक्ष' और 'परोक्ष' का भेद माना है, शेष समान माना है- “स्याद्वाद-केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने। भेद: साक्षात् असाक्षाच्च................. ।।" ___ तथा वैदिक-परम्परा ने 'श्रुति' के लिए 'वेद' शब्द का प्रयोग किया है, जो विद्लू ज्ञाने' – इस ज्ञानार्थक धातु से निष्पन्न है और इसका मूल-अर्थ भी 'ज्ञान' ही है। ___ यदि कोई मूलभूत-अन्तर है, तो वह है 'श्रुत' या 'आगम' की परम्परा वीतरागी, सर्वदर्शी केवलज्ञानी के द्वारा प्रवर्तित एवं राग-द्वेषरहित पूर्णज्ञान पर आधारित है; जबकि 'श्रृति' या 'वेद' की परम्परा 'अपौरुषेय' कही जाने पर भी उसके दृष्टा एवं पुरस्कर्ता ऋषिगण हैं। . यद्यपि तत्त्वज्ञान की दृष्टि से दोनों ही परम्पराएँ अतिप्राचीन हैं, फिर भी इनका मूलरूप 'श्रवण-परम्परा' से ही आगत है। इनका लिखित-रूप कब से है? – इसका सप्रमाण कोई मूल-आधार तो उपलब्ध नहीं है; क्योंकि कोई भी लिखित-पाण्डुलिपि डेढ़ हजार वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं मिलती है; जबकि दोनों परम्पराएँ अपने तत्त्वज्ञान का लिपिबद्धीकरण इससे भी कई सौ वर्ष पहिले से मानती हैं। 1500 वर्ष से पहिले के लिखित-प्रमाण मात्र शिलालेखों के हैं, किन्तु उनमें इनमें से किसी भी परम्परा के मूल-तत्त्वज्ञान (श्रुत/आगम या श्रुति/वेद) को उत्कीर्णित नहीं किया गया है। हाँ, ईसापूर्वयुगीन सम्राट अशोक एवं सम्राट् खारवेल के ऐतिहासिक अभिलेखों में श्रमण एवं वैदिक (ब्राह्मण) दोनों परम्पराओं के उल्लेख अवश्य मिलते हैं। इतना विशेष है कि श्रमण-परम्परा के मूलमंत्र ‘णमोकार मंत्र' की प्रारंभिक पंक्तियाँ 'आदि-मंगल' के रूप में सम्राट् खारवेल के शिलालेख में अवश्य प्राप्त होती हैं ___ “णमो अरिहंतानं, णमो सवसिधानं" यहाँ मैं श्रुत-परम्परा क विषय में कुछ विचार व्यक्त करना चाहता हूँ। श्रुत-परम्परा के उद्गम एवं महत्त्व के विषय में मनीषियों ने गंभीर-उद्गार व्यक्त किए हैं ‘एवं यत्केवलज्ञानमनुमानविजृम्भितम् । नर्ते तदागमात् सिद्धेयन्न च तेन विनागमः ।। 26।। . सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मत:।। प्रभव: पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते।। 27 ।।" अर्थात्- आगम में उपदिष्ट सम्यग्दर्शनादि के बिना केवलज्ञान की सिद्धि (प्राप्ति) नहीं हो सकती और केवलज्ञान के बिना आगम की सिद्धि (निष्पत्ति) नहीं हो सकती, —यह बात सत्य है; क्योंकि आगमज्ञान के बल से ही पुरुष में केवलज्ञानादिरूप-अतिशय प्रकट होता है और उस अतिशय से आगम का प्रभाव होता है। सर्वज्ञ और आगम की अनादि सन्तान-परम्परा बीजाकुर-परम्परा की तरह चमकती रहती है। 008 प्राकृतविद्या-जनवरी-जून '2003 (संयुक्तांक)
SR No.521370
Book TitlePrakrit Vidya 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2003
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size12 MB
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