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________________ उनका अभी सर्वेक्षण ही नहीं हुआ है। जैन-मंदिरों के साथ शास्त्र-भंडार भी हुआ करता है। मंदिर में लोग उनका स्वाध्याय भी करते हैं। यदि केरल के जैन-आचार्यों ने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, तो कम से कम कुंदकुंदाचार्य जैसे आचार्यों के ग्रंथ तो उपलब्ध होने चाहिए। इस संबंध में भी अनुसंधान की आवश्यकता है। जीव-कारुण्यम् संस्कृति डॉ० चंद्रशेखर नायर ने केरल के जातिवाद-विरोधी एवं प्रमुख आधुनिक समाज-सुधारक या लोगों को वर्णवाद के कठोर पंजे से मुक्ति दिलानेवाले 'चट्टम्पि स्वामी' की एक जीवनी 'महर्षि श्री विद्याधिराज तीर्थपाद' नाम से प्रकाशित की है। स्वामीजी का समय उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्ध और बीसवीं सदी का प्रारंभ है। उन्होंने 'प्राचीन मलयालम' और 'जीवकारुण्यम्' जैसे ग्रंथों में नाग-लोगों की संस्कृति के संबंध में पर्याप्त-प्रकाश डाला है। उनके शिष्य श्री नारायण गुरु भी केरल में उनके ही समान पूज्य हैं । चट्टम्पि स्वामी जीवहिंसा के कट्टर-विरोधी थे। 'जीवकारुण्यम्' में उन्होंने लिखा है कि “महान् लोगों ने 'अहिंसा परमोधर्म:' का ही उपदेश दिया है।" यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि बहुत अधिक संख्या में जैन-स्मारक केरल में किसी न किसी कारण नष्ट हो चुके हैं, तथा प्राचीनकाल में अहिंसापूर्ण-संस्कृति ही केरल की मुख्य-संस्कृति थी। कल्याणम् दक्षिण-भारत में, जिसमें स्पष्ट ही केरल भी शामिल है, विवाह के लिए 'कल्याणम्' शब्द प्रचलित है। इस संस्कृत शब्द का अर्थ है— मंगल, भलाई, शुभ-कर्म आदि। इसमें विवाह का अर्थ कैसे आ गया? यदि विवाह को एक उत्सव मानें, तो इस शब्द में जो नवीन अर्थ आ गया है, उसे समझा जा सकता है। जैन-परंपरा के अनुसार किसी भी तीर्थंकर के पाँच कल्याणक या महोत्सव होते हैं। वे इसप्रकार हैं— गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान और निर्वाण । इसके अतिरिक्त जब कभी किसी मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है, तब भी ये उत्सव बड़ी । मधाम से मनाए जाते हैं। प्राचीनकाल में केरल सहित तमिलनाडु में जैनधर्म का बड़ा प्रभाव था। छठी-सातवीं शताब्दी में तो ऐसा लगता था कि सारा तमिलदेश जैन हो जाएगा, इसलिये यह संभावना सामने आती है कि इन महोत्सवों के अनुसरण पर विवाह को भी 'कल्याणम्' कहा जाने लगा होगा। इस सांस्कृतिक-संभावना पर भी विचार किया जा सकता है। ___ जैनधर्म केरल में आज भी जीवित है। उसके अनुयायियों की वर्तमान-संख्या को ध्यान में रखकर संभवत: इसप्रकार के निष्कर्ष यदि निकाले जायें, तो यह शुभ नहीं है। ___ संस्कृति-चाहे वह केरल की हो या अन्य किसी भूभाग की, वह एक समुद्र के समान है। उसमें नदियों की अनेक धारायें आकर मिलती हैं। फिर भी किसी एक ही धारा को प्रधानता देना या शुष्कधारा को आवश्यकता से अधिक महत्त्व देना और आज भी प्रवहमान धारा का गौण करना सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से कहाँ तक उचित है? प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001 बर 2001 0085
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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