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________________ प्रकारान्तर से वायुपुराण' और 'ब्रह्माण्डपुराण' में भी कहा गया है। अगर जैन और भागवत दोनों परम्परायें भरत के नाम पर इस देश को 'भारतवर्ष' कहती हैं, तो उसके पीछे की विलक्षणता की खोज करना विदेशी विद्वानों के वश का नहीं, देशी विद्वानों की तड़प ही इसकी प्रेरणा बन सकती है। पर क्या कहीं न कहीं इसका संबंध इस बात से जुड़ा नजर नहीं आता कि यह देश उसी व्यक्तित्व को सिर आँखों पर बिठाता है जो ऐश्वर्य की हद तक पहुँचकर भी जीवन को सांसारिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक-साधना के लिए होम कर देता है? ____जाहिर है कि ऋषभपुत्र भरत के नाम पर जब इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा होगा, तो धीरे-धीरे ही पूरे देश को यह नाम स्वीकार्य हो पाया होगा। एक सड़क या गली का नाम ही स्वीकार्य और याद होने में वर्षों ले लेता है, तो फिर एक देश का नाम तो सदियों की यात्रा पार करता हुआ स्वीकार्य हुआ होगा, तब भी वह जब संचार-साधन आज जैसे तो बिलकुल ही नहीं थे। पर लगता है कि 'महाभारत' तक आते-जाते इस नाम को अखिल भारतीय स्वीकृति ही नहीं मिल गई थी, बल्कि इसके साथ भावनाओं का रिश्ता भी भारतीयों के मन में कहीं गहरे उतर चुका था। ऊपर कई तरह के पुराणसंदर्भ तो इसके प्रमाण हैं ही, खुद 'महाभारत' के 'भीष्म पर्व' के नौवें अध्याय के चार श्लोक अगर हम उद्धत नहीं करेंगे, तो पाठकों से महान् अन्याय कर रहे होंगे। धृतराष्ट्र से संवाद करते हुए, उनके मन्त्री, जिन्हें हम आजकल थोड़ा हल्के मूड में 'महाभारत का युद्ध-संवाददाता' कह दिया . करते हैं, संजय कहते हैं अत्र ते वर्णयिष्यामि वर्ष भारत-भारतम् । प्रियं इन्द्रस्य देवस्य मनो: वैवस्वतस्य च।। पृथोश्च राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाको: महात्मनः । ययाते: अम्बरीषस्य मान्धातुः नहुषस्य च।। तथैव मुचुकुन्दस्य शिबे: औशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा।। अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम् । सर्वेषामेव राजेन्द्रप्रियं भारत-भारतम् ।। अर्थात् हे महाराज धृतराष्ट्र! अब मैं आपको बताऊँगा कि यह भारतदेश सभी राजाओं को बहुत ही प्रिय रहा है। इन्द्र इस देश के दीवाने थे, तो विवस्वान् के पुत्र मनु इस देश से बहुत प्यार करते थे। ययाति हों या अम्बरीष, मान्धाता रहे हों या नहुष, मुचुकुन्द, शिबि, ऋषभ या महाराज नृग रहे हों, इन सभी राजाओं को तथा इनके अलावा जितने भी महान् बलवान् राजा इस देश में हुए, उन सबको भारतदेश बहुत प्रिय रहा है। -(साभार उद्धृत, 'भारतगाथा', निष्ठा प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 30-37) प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001 .00 69
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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