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________________ प्राकृत-ग्रन्थों में जिनलिंगों का स्वरूप -डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल प्राकृतभाषा के समस्त वाङ्मय में शौरसेनी प्राकृतभाषा में निबद्ध निग्रंथ-परम्परा के आगम-ग्रंथों की अपनी अलग महत्ता एवं प्रतिष्ठा है। भाषिक-प्रयोगों के वैशिष्ट्य के साथ-साथ विषय-प्ररूपण भी उनमें अतिविशिष्ट है। अनगारों के विषय में इन ग्रंथों में जो महत्त्वपूर्ण दिशानिर्देश दिये गये हैं, वे आज के समस्त मुनिसंघों के लिए एवं विद्वानों, श्रावकों, जिज्ञासूओं के लिए अवश्य पठनीय, मननीय एवं विचारणीय हैं। प्रस्तुत आलेख में विद्वान् लेखक ने मात्र तथ्यपरक-रीति से जो विचार-बिन्दु प्रस्तुत किये हैं, वे इस दिशा में | संक्षिप्तीकृत-सामग्री का व्यवस्थितरूप कहे जा सकते हैं। –सम्पादक विश्व के समस्त धर्म-दर्शनों में जैनदर्शन ही समस्त जीवात्माओं को स्वभाव से वीतराग, सर्वज्ञ एवं परम आनंदरूप बताकर उसकी प्राप्ति का मार्ग बताता है। दु:ख के जनक हैंकुज्ञान, कषाय, कंचन और कामिनी की अभिलाषा। इसे ही पर-समय' कहा है। आनंदप्राप्ति का मार्ग है आत्मज्ञानपूर्वक कषाय, कंचन, कामिनी का परित्याग एवं शुद्धोपयोगरूप आत्मध्यान । यही स्व-समय' है। इसीकारण मुक्ति का आराधक साधु परिग्रह और स्त्री का त्यागी होता ही है।' आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने जैनदर्शन में मात्र तीन वेष-लिंग स्वीकार किये हैं- पहला जिनदेवस्वरूप साधु, दूसरा उत्कृष्ट श्रावक (एलक) एवं तीसरा जघन्य पद में स्थित आर्यिका। जिनमत में चौथा भेष नहीं है।' 1. वंदनयोग्य साधु : ___ आचार्य वट्टकेर के अनुसार साधु, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और शक्ति को अच्छी तरह समझकर भलीप्रकार ध्यान, अध्ययन और चारित्र का आचरण करते हैं।' ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न और ध्यान, अध्ययन और तप से युक्त तथा कषाय और गौरव से रहित मनि शीघ्र ही संसार को पार कर लेते हैं । विनयसहित मुनि स्वाध्याय करते हुये पंचेन्द्रियों को संकुचित कर तीन गुप्ति-युक्त और एकाग्रमना हो जाते हैं। गणधरदेवादि ने कहा कि अंतरंग-बहिरंग बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय समान तप:कर्म न है और न होगा 0058 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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