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________________ ही । स्वाध्याय ही परमतप है ।" जिसप्रकार धागासहित सुई नष्ट नहीं होती, उसी प्रकार आगमज्ञानसहित प्रमाददोष से भी नष्ट नहीं होता।' आगमहीन आचार्य अपने को और दूसरों को भी नष्ट करता है।' साधु समभाववाले होते हैं। शत्रु-मित्र, निंदा - प्रशंसा, लाभ-अलाभ और तृण-कंचन में उनका समभाव होता है। ऐसे विरक्त, निर्ममत्व, निरारम्भी, संयम, समिति, ध्यान एवं समाधि में अप्रमत्त - समभावी मुनि ही एकभवावतारी लौकान्तिक देव होते हैं ।' 2. ग्यारह प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक : जिनमत में दूसरा भेष ग्यारह प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक - ऐलक का होता है । इनके पास एक वस्त्र या कौपीन होता है। पात्र या करपात्र में भिक्षा - भोजन करते हैं। मौन या भाषासमितिरूप वचन बोलते हैं । सम्यग्दर्शन - ज्ञान संयुक्त हैं। ऐसे उत्कृष्ट श्रावक ऐलकक्षुल्लक 'इच्छाकार' करने योग्य हैं । 'इच्छामि' या इच्छाकार का अर्थ अपने आपको, आत्मा को चाहना है ।" जिसे आत्म इष्ट नहीं, उसे सिद्धि नहीं, अतः हे भव्य जीवो! आत्मा की श्रद्धा करो, इसका श्रद्धान करो और मन-वचन-काय से स्वरूप में रुचिकर मोक्ष प्राप्त करो। " 3. आर्यिका : जिनमत का तीसरा पद नारी का 'आर्यिका' वेष है। आर्यिका एकवस्त्र धारण करती है और स-वस्त्र दिन में एक बार भोजन करती है। क्षुल्लिका दो वस्त्र रखती है। 12 जिनमत में नग्नपना ही मोक्षमार्ग है । वस्त्रधारण करनेवाले मुक्त नहीं होता । नारी के अंगों में सूक्ष्मकाय, दृष्टि अगोचर त्रस - जीवों की उत्पत्ति होते रहने के कारण वे दीक्षा के अयोग्य हैं । चित्त की चंचलता के कारण उन्हें आत्मध्यान नहीं होता, फिर भी जिनमत को श्रद्धा शुद्ध होने से मोक्षमार्गी हैं और तीव्र तपश्चरण के कारण पापरहित हैं, जिससे स्वर्गादिक प्राप्त करती हैं। 13 से यद्यपि आर्यिका का पंचम गुणस्थान देशव्रत' होता है फिर भी उपचार से आचार्यों ने साधुओं के समान उनके महाव्रत मान लिये हैं । " मात्र वे वृक्षमूलयोग, आतायनयोग, प्रतिमायोग, वर्षायोग तथा एकान्तवास आदि नहीं करती।" वे निरन्तर पढ़ने, पाठ करने, सुनने, कहने और अनुप्रेक्षाओं के चितवन में तथा तप, विनय और संयम में नित्य ही उद्यम करती हुई ज्ञानाभ्यास में तत्पर रहती हैं । " शब्द से उनकी विनय की जाती है। साधु आर्थिक कितने दूर कितने पास : साधु और आर्यिका दोनों यद्यपि वीतराग - मार्ग के पथिक हैं, फिर भी काम-स्वभाव की दृष्टि से एक घी और दूसरा अग्नि के समान है । अत: इनके मध्य कितनी निकटता और कितनी दूरी हो — इसका विशद वर्णन आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में और आचार्य शिवकोटि ने 'भगवती आराधना' में किया है, जिसका सार निम्नप्रकार है : प्राकृतविद्या अक्तूबर- - दिसम्बर 2001 59
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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