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लदे रहेंगे, तुम्हें मुक्ति के रहस्य का पता नहीं लगेगा । "
यह स्पष्ट वर्जना थी। ओनेसिक्राइटस के लिए प्रबल - प्रतिद्वंद्वी की यह एक चुनौती थी । उसने तिलमिला कर कहा, “जिन वस्तुओं को तुम अनावश्यक बता रहे हो, वे प्राकृतिकविपत्तियों से मनुष्य की रक्षा करती हैं और इसप्रकार उसे उन्नति की ओर बढ़ने के लिए शक्ति देती हैं । जीव, आत्मा, हिंसा, पातक, कर्मफल, पुण्य, मोक्ष .... समाज से दूर जंगल में बैठकर, बिना किसी प्रयोगशाला के तुम लोगों ने जो मूर्खतापूर्ण कल्पनायें स्थापित की हैं, उनसे 'तुम लोग स्वयं भी कष्ट पाते हो और अपने देश के मानवों में भी भय और आशंकाओं का संचार करते हो। इस दुनिया से दूर की दुनिया को जीतनेवाले पहले इस संसार को जीतते हैं । यदि तुमसे यह संसार नहीं जीता जाता, तो जीतनेवालों के दर्शन करो। संभव है, उनसे तुम्हें कुछ प्रेरणा मिले ।”
“तुम लोग म्लेच्छ हो,” मुनि- महाराज ने कहा । शांतभाव से वह बोले, “तुम लोगों की बुद्धि सच्चे धर्म को नहीं जान सकती। हमारा मार्ग निश्चित है । जिसे जिनदेव का ज्ञान प्राप्त करना हो, वह जिज्ञासु बनकर हमारी तरह साधना करे; तभी उसे सच्चा - ज्ञान प्राप्त हो सकता है। सच्चे-ज्ञान को प्राप्त करने से पहले सच्चे - धर्म में विश्वास करना होगा, तभी मोक्ष मिलेगा ।"
यूनानी दार्शनिक आँखें फाड़कर इन विचित्र - साधुओं की ओर देखता रह गया । वह बोला, “आश्चर्य है कि जिस वस्तु का ज्ञान तक नहीं, पहले उस पर विश्वास करने से ही तुम्हारे कल्पित-मोक्ष तक पहुँचा जा सकता है। मालूम होता है कि तुम लोगों ने बुद्धि का दिवाला निकालकर इस तपस्या के बहाने आत्मघात पर कमर कसी है। तुम अपने विश्वास को अपने पास ही रखो। यूनान की प्रयोगशालाओं में रात-दिन सच्चे ज्ञान का उद्भव हो रहा है। हम लोग पहले ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसे तरह-तरह की कसौटियों पर कसते हैं, तब उस पर उस समय तक विश्वास करने के लिए तैयार होते हैं, जब तक कोई बुद्धिमान् व्यक्ति उसे गलत सिद्ध न कर दे। महान् विजेता सिकन्दर तुम लोगों को उन प्रयोगशालाओं में सच्चे ज्ञान के दर्शन के लिए एक ऐसा अवसर दे रहा है, जो इस संसार में विरलों को ही प्राप्त होता है।"
मुनि - महाराज ने मौन धारण कर लिया । भगवान् जिनदेव से ऊपर किसी व्यक्ति की महत्ता उन्हें स्वीकार नहीं थी । ओनेसिक्राइटस कुछ देर तक प्रतीक्षा में खड़ा रहा। तब भी ने उसे बताया कि अब उसके प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा ।
यूनानी दार्शनिक क्षुब्ध हो गया। उसने एक बार दयापूर्ण दृष्टि से उन मुनियों की ओर देखा, फिर अपने एक अनुचर को लक्ष्य करके बोला, “इन संवादों को लिख लो, ताकि महान् विजेता सिकन्दर भी इन लोगों की बुद्धि पर तरस खायें। चलिये, महाराज आर्मीस ! मुझे आपके आध्यात्मिक गुरुओं से बहुत बड़ी निराशा हुई... ज्ञान से पहले विश्वास, आश्चर्य है । " - (साभार उद्धृत वैशालिक की छाया में' पृ० 67-73)
प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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