SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चन्दनबाला का उद्धार उस काल में भारत में दास-प्रथा का प्रचलन था। इधर-उधर से अपहृत सुन्दर-स्त्रियाँ चौराहों पर खड़ी करके बेची जाती थीं। सुदूर यवन-देशों में सुन्दरी यवनियाँ पोतों में भरकर 'भरुकच्छ' बन्दरगाह पर लाई जाती और यहाँ से वे श्रावस्ती, कौशाम्बी, वत्स, अवन्तिका आदि के बाजारों में बेच दी जाती। इसीप्रकार दासों का क्रय-विक्रय होता था। राजा और सम्पन्न परिवार इन्हें खरीद लेते। स्त्रियाँ वासनापूर्ति का साधन बनतीं, उनसे और दासों से पशुओं के समान व्यवहार किया जाता था। यज्ञों में ये दास-दासियाँ ऋषियों को भेंटस्वरूप दी जाती थीं। वैशाली के महाराज चेटक की सबसे छोटी पुत्री चन्दनबाला एक दिन अपने उद्यान में सखियों के साथ झूल रही थी। एक विद्याधर की उस पर दृष्टि पड़ी और वह बलपूर्वक उसे अपने विमान में ले उड़ा। इसके बाद वह कई हाथों में बिकी, किन्तु उसका शील अक्षुण्ण रहा। किसी को उसे धर्मच्युत करने का साहस नहीं हुआ। अन्त में वह कौशाम्बी के बाजार में बिकने के लिए लाई गई। तभी धर्मपरायण सेठ वृषभदत्त जिनालय से दर्शन-पूजन करके निकले। उनकी दृष्टि चन्दना पर पड़ी। देखते ही वे समझ गये कि यह कन्या किसी उच्च और सम्भ्रान्त-परिवार की है। दुर्दैव से यह इन नर-पिशाचों के हाथों में पड़ गई हैं। यह सोचकर करुणावश उन्होंने व्यापारी से उसे खरीद लिया और अपने घर ले आये। घर आकर उन्होंने अपनी पत्नी सुभद्रा से कहा दुर्भाग्यवश हमारे कोई संतान नहीं थी, किंतु भाग्य ने हमें यह सुलक्षणा-कन्या दे दी है। हम इसे बेटी मानकर रखेंगे। तुम इसका पूरा ध्यान रखना। श्रेष्ठी चन्दना से पुत्रीवत् व्यवहार करते और उसकी सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखते, किन्तु संदेहशील सेठानी को श्रेष्ठी का यह व्यवहार कपट-व्यवहार लगता। उसे लगता कि श्रेष्ठी ने एक सँपोली मेरे सिर पर लाकर बैठा दी है, अत: वह चन्दना से मन ही मन कुढ़ती रहती थी। तभी व्यापारिक-कार्यवश श्रेष्ठी को परदेश जाना पड़ा, किंतु वे चलते-चलते भी सेठानी से अपनी धर्मपुत्री का ध्यान रखने को कह गये। श्रेष्ठी के जाते ही सेठानी ने अपनी सौतिया-डाह निकालना चालू कर दिया। उसने कैंची से चन्दना के केश काट दिये, जिससे वह विरूप हो जाये, लोहे की सांकल से उसके हाथ-पैर बाँध दिए, नीचे के अंधेरे-प्रकोष्ठ में उसे डलवा दिया। खाने के लिए मिट्टी के सकोरे में काँजी-मिश्रित कोदों का भात दे दिया। तभी भगवान् महावीर वत्स देश' की राजधानी कौशाम्बी' में आहार के निमित्त पधारे। वे श्रेष्ठी के द्वार के सामने से निकले। भगवान् को चर्या के निमित्त आते देखकर चन्दना का रोम-रोम हर्ष और भक्ति से खिल उठा। वह भूल गई अपनी दुर्दशा, वह भूल गई कि वह त्रिलोकवन्द्य भगवान् के उपयुक्त-आहार नहीं दे सकेगी। वहतो अपने सात्त्विक हृदय की भक्ति का अर्घ्य भगवान् के चरणों में चढ़ाने को आतुर हो उठी। हर्ष के अश्रु उसके नेत्रों से प्रवाहित होने लगे। वह भगवान् का प्रतिग्रह करने के लिए अभी मिले हुए मिट्टी प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर '2001 40 33
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy