SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पकड़ने का दृश्य कुषाणकालीन एक शिला-फलक पर अंकित है, जो मथुरा-म्जूजियम में सुरक्षित है। ___ इसीप्रकार की घटनाओं के कारण उन्हें लोग 'वीर' और 'अतिवीर' के नाम से पुकारने लगे। इसप्रकार संसार में उनके पाँच नाम प्रचलित हो गये। संसार से वैराग्य और दीक्षा ___ यों ही उनका शैशव बीता और यौवन आया । यौवन आया, किन्तु यौवन की रंगीनियाँ नहीं आईं, यौवन की मादकता नहीं आई। वे राजपुत्र थे। राजसी वैभव और गणतंत्र की सत्ता उनकी प्रतीक्षा में खड़े-खड़े कुम्हला रही थी। उनके सारे कर्म निष्काम थे। वे चिन्तनशील अनासक्त योगी थे। तीर्थकर संसार के जीवों को कल्याण की शिक्षा देने के लिए ही उत्पन्न होते हैं। वे 'जगद्गुरु' कहलाते हैं। उन्हें कोई अक्षरज्ञान दे सके, ऐसा कोई गुरु नहीं होता। सारा संसार और उसका स्वभाव ही उनकी पुस्तक होता है। उस पर ही वे निरन्तर गहन चिन्तन करते हैं और उसका सारतत्त्व निकालकर अमृतत्व की ओर बढ़ते रहते हैं। जब उनका आत्म-चिन्तन अपने अंतिम-बिन्दु (Climax) पर पहुंचा, तो उन्होंने संसार से विरक्त होकर दीक्षा लेने का निर्णय कर लिया। वे किसी अंधेरी रात में किसी से कहे सुने बिना चुपचाप जंगल की ओर नहीं चल दिये, बल्कि उन्होंने अपने माता-पिता और परिजनों को अपने निर्णय की सूचना दी, उनसे अनुमति ली और परिजनों के साथ 'ज्ञातृखण्ड वन' में जाकर, जो क्षत्रियकुण्डपुर के पूर्वोत्तर-भाग में ज्ञातवंशी-क्षत्रियों का उद्यान था, नग्न दिगम्बर-मुद्रा धारण करके अन्य तीर्थंकरों के समान प्रव्रज्या ले ली और आत्मध्यान में अवस्थित हो गये। महावीर की साधना वे कभी इन्द्रियों के निर्देश पर नहीं चले, मन की वासना के वश में कभी नहीं हो पाये। इन्द्रियों और मन का उन्होंने कठोरता से नियमन किया। एक बार तो वे अनार्य लोगों के लाढ़ देश में जा पहुँचे। अनार्यों ने उनके साथ बड़ा अभद्र व्यवहार किया। तपस्या से दीप्त उनके बलिष्ठ और सुन्दर शरीर पर मुग्ध होकर अनेक ललनायें उनसे काम-याचना करती, अपनी प्रणय-निवेदन करतीं। कई लोग उनहें पत्थर मारते और कई अर्घ्य लेकर उनकी पूजा करते, किन्तु वे दोनों के प्रति समदृष्टि थे। उन्हें न राग था, न द्वेष । उज्जयिनी में उनके ऊपर श्मशान में स्थाणु' नामक 'रुद्र' ने घोर उपसर्ग किया, किंतु वे अविचल बने रहे। __वे बारह वर्ष तक नितान्त मौन रहे, किन्तु उनके इस मौन में ही सत्य का भण्डार भरा पड़ा था, उससे ही लोक मानव में व्याप्त असत्य के प्रति आग्रह और अविवेकपूर्ण मूढ़ता के प्रति व्यामोह दूर होने लगा था। उनके आक्रोशहीन-मौन और क्षमाशील-वृत्ति का जनसाधारण पर गहरा-प्रभाव पड़ा था। 0032 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy