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________________ निर्वाचन होता था, जो अपनी युद्ध - उद्वाहिका चुनता था । वैशाली का वैभव अपार था। उसमें 7777 प्रासाद, 7777 कूटागार, 7777 आराम और 7777 पुष्करिणियाँ थीं। उसमें 7000 सोने के कलशवाले, 14000 चाँदी के कलशवाले और 21000 ताँबे के कलशवाले महल थे। वैशाली के लिच्छवी स्वातन्त्र्यप्रिय और मौजी स्वभाव के थे । उनमें परस्पर में बड़ा प्रेम था । यदि कोई लिच्छवी बीमार पड़ जाता था, तो अन्य सभी लिच्छवी उसे देखने आते थे । उत्सव और रंगीन वस्त्र पहनने का उन्हें बड़ा शौक था। एक बार भगवान् बुद्ध ने आनन्द से कहा था- " -" आनंद ! जिन्होंने त्रायस्त्रिँश स्वर्ग के देव नहीं देखे हैं, वे वैशाली के इन लिच्छिवियों को देख लें ।” । भगवान् का नामकरण जब भगवान् का जन्म हुआ, तबसे माता-पिता के श्री, विभूति, प्रभाव, धन-धान्य और समृद्धि आदि सभी में वृद्धि होने लगी थी। इसीलिए उन्होंने बालक का नाम 'वर्धमान' रखा। एक दिन बाल भगवान् रत्नजड़ित पालने में झूल रहे थे, तभी वहाँ 'संजय' और 'विजय' नामक दो चारण-ऋद्धिधारी मुनि पधारे। उन्हें सिद्धान्त - सम्बन्धी कुछ शंका थी । बाल भगवान् को देखते ही उनका सन्देह दूर हो गया । तब उन्होंने भक्तिवश बालक का नाम 'सन्मति' रखा। एक दिन बाल- भगवान् अपने बाल सखाओं के साथ प्रमाद-वन में आमली - क्रीड़ा का खेल, खेल रहे थे। यह खेल देहातों में अब भी खेला जाता है। इनमें एक वृक्ष को केन्द्र बनाकर एक निश्चित-स्थान से सब बालक वृक्ष की ओर दौड़ते हैं। जो बालक सबसे पहले वृक्ष पर चढ़कर नीचे उतर आता है, वह शेष बालकों के कन्धे पर क्रम से चढ़कर मैदान का चक्कर लगाता है। 'संगम' नामक एक देव भयानक नाग का रूप धारण करके वर्धमान कुमार के बल-विक्रम की परीक्षा लेने वहाँ आ पहुँचा। उस नाग ने वृक्ष के मूल से स्कन्ध तक सारे भाग को लिपट कर अपने घेरे में ले लिया और फण फैलाकर फुंकार मारने लगा। सारे बालक भयभीत होकर भाग गये, किन्तु वर्धमान के मन में आतंक या भय नाममात्र को भी नहीं था । वे निर्भय होकर सर्प - फन पर खड़े होकर क्रीड़ा करने लगे। देव ने अपनी पराजय स्वीकार ली। पराजित होकर देव ने अजमुख - मानव का रूप धारण करके एक कन्धे पर वर्धमान कुमार को और दूसरे कन्धे पर उनके एक सखा पक्षधर को बैठा लिया तथा दूसरे बालसखा की अँगुली पकड़कर उन्हें घर तक पहुँचा दिया। उसने भक्तिपूर्वक वर्धमान कुमार की स्तुति करते हुए कहा- " - "भगवान् ! आपका बल-विक्रम अतुलनीय है। आप संसार में अजेय हैं। वास्तव में आप महावीर हैं।" तब से भगवान् का महावीर नाम संसार में प्रसिद्ध हो गया । 1 अजमुख देव का नाम पुरातत्त्ववेत्ता हरिनैगमेश बताते हैं । हरिनैगमेश द्वारा वर्धमान कुमार और उनके एक सखा पक्षधर को कन्धे पर बैठाने और दूसरे सखा काकधर की उंगली प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर '2001 00 31
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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