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________________ के सकोरे में कोदों का भात लिए आगे बढ़ी। भगवान् के प्रभाव से उसके बंधन टूट गये, सिर पर रेशमी बाल आ गये, मिट्टी का सकोरा स्वर्ण पात्र और कोदों का भात अमृतभोजन हो गया। भगवान् ने अपने पाणिपात्र में निष्काम-भाव से खड़े-खड़े उसके हाथ से अल्पआहार लिया और वन की ओर चले गये। देवों ने आकाश में और मनुष्यों ने नगर में चन्दना के भाग्य की सराहना की। तभी श्रेष्ठी प्रवास से वापिस लौटे । वे अपनी पुत्री के सौभाग्य पर बड़े हर्षित हुए और अपनी स्त्री द्वारा किये गये दुर्व्यवहार पर बहुत क्षुब्ध हुए। चन्दना द्वारा भगवान् को दिये गये इस आहार की चर्चा सम्पूर्ण कौशाम्बी में होने लगी। इसकी गूंज राजमहलों में भी जा पहुंची। यह समाचार सुनकर वत्स देश' की पट्टमहिषी मृगावती' उस महाभाग रमणीरत्न से मिलने को उत्सुक हो उठी, जिसे भगवान् को आहार देने का पुण्ययोग मिला। स्वयं श्रेष्ठी ऋषभदत्त के भवन में मिलने आई और चन्दना से मिली। वह यह देखकर अवाक् रह गई कि रमणीरत्न और कोई नहीं, उसकी सगी बहन है। उसने चन्दना से सारा वृत्तान्त सुना और उसे अपने महलों में ले गई। वहाँ से उसका भाई सिंहभद्र वैशाली' ले गया, किन्तु चन्दना को इस अल्पवय में ही संसार का कटु अनुभव हुआ था, उसके कारण उसे संसार से निर्वेद हो गया। जब भगवान् को केवलज्ञान हो गया, तब चन्दना ने भगवान् के निकट आर्यिका दीक्षा ले ली और अपनी योग्यता एवं साधना के बल पर 36000 आर्यिकाओं के संघ की गणिनी के पद पर प्रतिष्ठित हुई। . भगवान् ने राजमहलों के सुस्वादु व्यंजन ठुकराकर एक दासी के नीरस कोदों का आहार लिया, इससे जनसाधारण की निगाह दास-प्रथा की भयंकरता की ओर गई। परिणाम यह हुआ कि दास-प्रथा भारत से उठ गई। भगवान् को केवलज्ञान ___ बारह वर्ष तक मौन रहकर कठोर-साधना और तप करते हुए भगवान् ‘जृम्भिक ग्राम' के निकट ऋजुकूला नदी' के तट पर जाकर ध्यानावस्थित हो गये। उन्होंने आत्मा के सम्पूर्ण विकारों और घातिया-कर्मों का नाश करके वैशाख शुक्ल दशमी के अपराह्न-काल में केवलज्ञान आदि अनन्त-चतुष्टय प्रकट कर लिये। वे सशरीरी-परमात्मा बन गये। धर्मचक्र प्रवर्तन समवसरण के मध्य में गन्धकुटी में सिंहासन पर भगवान् विराजमान थे। समवसरण में देव, मनुष्य, तिर्यञ्च आदि असंख्य श्रोता विद्यमान थे। वे भगवान् की दिव्यध्वनि सुनने के लिए उत्सुक थे, किन्तु भगवान् मौन थे। मौन की अवधि लम्बी होती जा रही थी। 66 दिन तक, केवलज्ञान होने पर तीर्थंकर की दिव्यध्वनि प्रगट न हो, यह अभूतपूर्व घटना थी। सौधर्मेन्द्र ने विचार किया – “क्या कारण है, जो भगवान् की दिव्यध्वनि प्रगट नहीं हो रही?' इन्द्र को समझने में देर न लगी कि गणधर के बिना तीर्थंकर की दिव्यध्वनि नहीं 00 34 प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर '2001
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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