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________________ जाना चाहिए। मयूरपंख देखकर संयम के भावों में अवश्य वृद्धि होती है और इसी हेतु से इसे 'संयमोपकरण' कहना समीचीन है । पिच्छिधारण निर्मल तथा शुद्ध जिनलिंग है । इस तथ्य को 'षट्प्राभृत' ग्रन्थ के 'भावप्राभृत' प्रकरण की 79वीं गाथा के चतुर्थ चरण 'जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं' की टीका में स्पष्ट करते हुए लिखा है कि 'जिनलिंगं नग्नरूपमर्हन्मुद्रामयूरपिच्छकमण्डलुसहितं निर्मलं कथ्यते । तद्द्वयरहितलिंगं कश्मलमित्युच्यते । तीर्थकरपरमदेवात्तप्तद्धेर्विना अवधिज्ञानाद् ऋते चेत्यर्थ: ।' – अर्थात् मयूरपिच्छ तथा कमण्डलु सहित नग्नरूप 1 1 19 अर्हन्त भगवान् की मुद्रा है। वह निर्दोष एवं निर्मल है। जो इन दोनों से रहित नग्नरूप है, वह मलिन कहा जाता है । किन्तु तीर्थंकर परमदेव, तप्तर्द्धिधारक तथा अवधिज्ञानी को इनका धारण करना आवश्यक नहीं है । ये (उक्त ) पिच्छिकमण्डलुरहित भी अर्हन् मुद्राधारी माने गये हैं। ‘भावसंग्रह' ं में भी अवधिज्ञान से पूर्व तक पिच्छिधारण प्रतिलेखनशुद्धि के निमित्त आवश्यक कहा है।” अवधिज्ञान के अनन्तर इसका धारण आवश्यक नहीं । उपेक्षा-संयमी को पिच्छि की आवश्यकता नहीं । किन्तु अपेक्षासंयमी को धारणीय है ही । ‘आदानसमिति’ तथा निक्षेपसमिति' का उल्लेख करते हुए श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि 'अपहृतसंयमधारी मुनियों को आगम - अर्थ के प्रत्यभिज्ञान के लिए बार- बार ज्ञानोपकरण (शास्त्र) की आवश्यकता होती है, विशुद्धि के लिए शौचोपकरण 'कमण्डलु' की तथा संयमोपकरणरूप में 'पिच्छि' की आवश्यकता होती है। इन शौच- संयम - ज्ञानोपकरणों के बारम्बार ग्रहण तथा विसर्ग में जो प्रयत्नपरिणाम होता है, उसे 'आदानसमिति' तथा ‘निक्षेपणसमिति' कहा गया है। एकादश- प्रतिमाधारी उत्कृष्ट - श्रावक दो प्रकार का होता है, प्रथम एकवस्त्रधारी, द्वितीय वस्त्ररहित कौपीनमात्रधारी । ये दोनों ही तप, व्रत, नियमादि पालन करते हैं। कौपीनमात्र धारण करनेवाले ऐलक 'कचलोंच' करते हैं । पिच्छिधारण दोनों (क्षुल्लक, ऐलक) करते हैं । अनुप्रेक्षा (द्वादशानुप्रेक्षा ) धर्मध्यान तथा किसी एक स्थान पर करपात्र में स्थितिभोजन और आसन लेकर भी आहार ग्रहण करते हैं । 20 21 मयूरपिच्छ के महत्त्व की सीमा नहीं है। त्यागी के लिए पिच्छि कितनी उपकारिणी है, यह पर्याप्त बताया जा चुका है । पिच्छि को 'मिथ्यात्वनाशक तथा दुर्मदगजेन्द्र को बाधा देनेवाला सिंह' कहा गया है । 'मिथ्यात्वनाशं मदसिंहराजम्' उसके लिए प्रयुक्त प्रशंसावचनों में से हैं । वसुनन्दिश्रावकाचार, चारित्रसार, भगवती - आराधना और मूलाचार इत्यादि ग्रंथों में पिच्छिधारण का महत्त्व निरूपित किया गया है। जो त्यागी पिच्छिधारण करते हुए अपने भावलिंगी, वीतराग, त्यागप्रधान, लोकगुरुस्वरूप का संरक्षण नहीं करता, वह मुनिवेष को तिरस्कृत करता है। मुनि और सामान्य लौकिक आगारधर्मियों में यदि सम्यक्चारित्र और अपरिग्रहादि से प्रतीयमान शिष्ट - विशिष्ट - बोधक भेदरेखा नहीं होगी, तो पर्वत के शिखर और घाटियों के निम्नोन्नतत्व को समान आंकना होगा । पिच्छि-ग्रहण करने पर वह प्रवृत्तिमार्ग त्यागकर निवृत्तिमार्ग पर गतिमान् होता है। कोटि-कोटि जिन जिस दिगम्बरत्व को अपना आराध्य, वन्दनीय मानते हैं; वह उस वर्ग का महानुभाव व्यक्ति बन जाता है। प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर 2001 00 16
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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