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प्रकार के तक्रिया-असमर्थ रोगादि कारण होने पर कहा गया है कि 'मुनि पर कहा गया है कि 'मुनि पिच्छिसहित अंजलिबद्ध होकर, जुड़ी हुई अंजलि को वक्षःस्थल के मध्य में स्थित करके पर्यंकासन, वीरासन अथवा सुखासन से बैठकर, मन को एकाग्र कर स्वाध्याय तथा वन्दना करे।" खड़े होने की शारीरिक- अशक्तिदशा में ही यह विधान है, स्वस्थ रहते नहीं। मयूरपिच्छि में एक अन्य विशिष्ट-गुण मूलाराधना' (पृष्ठ 215) में बताया गया है कि “जो सवस्त्रलिंग धारण करते हैं, उन्हें वस्त्रखंड को बहुत शोधना होता है; परन्तु मयूरपिच्छि-मात्र परिग्रही (निर्ग्रन्थ) को बहुत शोधने की आवश्यकता नहीं। स्वयं ही उन्हें अप्रतिलेखन गुण प्राप्त हैं।'' 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' का प्रतिपादन है कि 'श्रमणशास्त्रों में अदत्त के आदान को 'स्तेय' (चौर्य) कहा है। कोई भी लघु या महत् वस्तु, जो स्वयं की न हो, परकीय हो, उसे वस्तु के स्वामी से ही याचनाकर प्राप्त करना चाहिए। जान-बूझकर अथवा प्रमादवश, अनजाने ग्रहण की हुई वस्तु चौर्यलब्ध ही मानी जाएगी। इस अर्थ में सामान्यरूप से किसी भी अदत्तवस्तु के ग्रहण का विधान मुनि के लिए नहीं है। तब क्या मयूरपिच्छ और कमण्डलु जो अरण्य में पड़े हुए मिल जाते हैं, मुनि को नहीं ग्रहण करने चाहिए? वे भी तो अदत्त हैं, उनका आदान कैसे हो? इस शंका का समाधान करते हुए आगे कहा गया है कि नदियों, निर्झरों आदि का जल, सूखे हुए गोमयखण्ड, अथवा भस्म आदि, अपनेआप मुक्त मयूरपंख एवं तुम्बीफल आदि (उक्त आदि शब्दों से मिट्टी तथा सामुद्रिकनारियल अर्थ ग्रहण करना अभीष्ट प्रतीत होता है) ग्रहण करने में स्तेयदोष नहीं लगता, यह सब 'प्रासुक' है, इसमें स्तेय नहीं है और इनका ग्रहण प्रमत्तत्व की हानि के लिए अभीष्ट है। कषायसहित मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को प्रमत्तयोग' कहा गया है; किन्तु धर्मपरिग्रह के रूप में आवश्यक पिच्छि और कमण्डलु का ग्रहण कषायनिमित्तक नहीं है, प्रत्युत-वीतराग मुनिचर्या का उपकारक है। तथा च जीवरहित, अचित्त होने से पिच्छि-कमण्डलु प्रासुक" हैं। 'भद्रबाहुक्रियासार' में पिच्छि को मोक्ष का साधक अन्यतम-कारण बताते हुए कहा है कि जो मुनि अपने पास पिच्छि नहीं रखता हैं, वह कायोत्सर्ग के समय, स्थिति में, उत्थान में, गमनागमन में अपनी दैहिक-क्रियाओं से सूक्ष्म जीवों का नाश करता है। परिणामस्वरूप उसे हिंसादोष लगता रहता है और मोक्षप्रतिबन्धक-कर्मों से उसे मुक्तिश्री की प्राप्ति नहीं होती।" उक्त समर्थनों से सिद्ध है कि मयूरपिच्छिका धारण करना त्यागियों के लिए आवश्यक है। निर्वाणभूमि पर पहुँचाने में जहाँ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-समन्वित सम्यक्चारित्र साक्षात्कारण है, वहाँ पिच्छि-कमण्डलु भी चारित्रचर्या के सहायक-उपकरण होने से उपकारक अथवा परम्परित-कारण हैं। अत्यन्त कोमल, नयनाभिराम, सुन्दर होते हुए भी मयूर इनका यथासमय त्याग कर देता है और मोह नहीं करता। इसप्रकार यह निर्मोह सिखानेवाली है। मुनि की पिच्छि को देखते ही वीतरागभाव का स्मरण होना चाहिए। अहो ! तिर्यक्योनि होते हुए भी मयूर को अपने एकमात्र अलंकरण बर्हो पर मोह नहीं उत्पन्न हुआ, मुनि तो मनुष्य पर्यायधारी है, धीमान है, विवेकसम्पन्न है। यदि वह रागान्ध हो, तो धर्म रसातल में चला
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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