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________________ के पुराण-साहित्य में भी पाया जाता है। पद्मपुराण, विष्णुपुराण तथा 'शिवपुराण' के टिप्पणी में दिये गये उद्धरणों से यह स्पष्ट है ।' 'शिवपुराण' में एक कथा आई है कि शिव ने दिगम्बर- मुद्रा धारण कर देवदारु- वन में आश्रम का निरीक्षण किया था । उनके हाथ में मयूरपिच्छि थी। प्रसिद्ध स्तोत्र 'नम: शिवाय' (पंचाक्षर स्तुति) में दिव्याय देवाय दिगम्बराय ' शिव की दिगम्बर-मुद्रा लिखी है । पिच्छि को प्रतिलेखन - मात्र नहीं माना गया है; अपितु वन्दना, सामायिक, प्रायश्चित्त, रुग्णदशा, आहारसमय, गमन आदि प्रकरणों में पिच्छि के विभिन्न उपयोगरूप शास्त्रों में निर्दिष्ट हुए हैं । वन्दना के समय मुनि आचार्य - महाराज को 'मैं वन्दना करता हूँ' – ऐसा कहते हुए पश्वर्धशय्या से आस्थित होकर पिच्छि को मस्तकस्पर्श देते हुए वन्दना करे।' इसीप्रकार जब आचार्य प्रतिवन्दन करें, तब उन्हें सपिच्छाञ्जलि होना चाहिए।' जिस मुनि महाराज को प्रायश्चित्त दिया गया है, उन्हें पिच्छि कालोमा भाग आगे की ओर रखना होता है । यह उनके प्रायश्चित्तीय होने का निदर्शक है। जब वे आहार के लिए श्रावकबस्ती में जाते हैं, तब पिच्छिकमण्डलु (दोनों) उनके हाथ हाते हैं। यों साधारण विहार-स्‍ र- समय में कमण्डलु को श्रावक, ब्रह्मचारी आदि लेकर चल सकते हैं। जिस श्रावक के यहाँ उन्हें आहारविधि मिल जाती है, तब वे पिच्छि और कमण्डलु को वामहस्त में एक साथ धारण करते हैं और दक्षिण-स्कन्ध पर अपना पंचांगुलिमुकुलित दक्षिणपाणि रखकर आहारस्वीकृति व्यक्त करते हैं।' आहार करते समय पिच्छिस्पर्श 'अन्तराय' माना गया है, अत: उसे उस समय दूर रखते हैं। कुछ लोग मयूरपंख को प्राण्यंग होने से अपवित्र कहते हैं। किन्तु श्रीचामुण्डरायरचित 'चारित्रसार' का कथन है कि 'शरीरजा अपि मयूरपिच्छ-सर्पमणि- शुक्तिमुक्ताफलादयो लोके शुचित्वमुपागता:' – अर्थात् मयूर के पंख, सर्पमणि, सीप और मुक्ताफल आदि ( गजमुक्ता ) शरीरज होने पर भी लोकव्यवहार 8 शुचि माने गये हैं । यही हेतु है कि शास्त्रों ने इसे 'धर्मपरिग्रह' स्वीकार किया है। 'मूलाचार' तो पिच्छि को 'दया का उपकरण' कहते हैं । उनकी मान्यता है 'प्रतिलेखन के लिए मयूरपिच्छिधारण श्रेष्ठता की बात है।' तीर्थंकर परमदेव इसे सूक्ष्म जीवों तक का रक्षात्मक होने से दयोपकरणरूप में योगियों के लिए प्रशंसनीय कहते हैं । 'मंत्रलक्षणशास्त्र' कहता है कि पिच्छ आवश्यकता होने पर छत्र भी है और चामर भी, यंत्र और मंत्र की प्रसिद्धि (सिद्धि) के लिए भी इसका व्यवहार किया जाता है और सम्पूर्ण प्राणियों की रक्षा के लिए तो है ही।" इसप्रकार पिच्छि पंचगुणविभूषित है । 'मूलाराधना' में पिच्छि के अन्य पाँच कहा है कि 'ज और स्वेद का अग्रहण, मृदुता, सुकुमारता और लघुत्व (हल्कापन); जिस पिच्छि में ये पंचगुण विद्यमान हों, उस प्रतिलेखन- उपकरण की प्रशंसनीयता असंदिग्ध है ।'' 'सकलकीर्ति- धर्मप्रश्नोत्तर' में मूलाराधनाप्रोक्त पंच-गुणों का कीर्तन करने के पश्चात् इसमें निर्भयता आदि अतिरिक्त गुणों का निर्देश किया गया है ।" 'नीतिसार' का कथन है कि 'छाया में, आतप में अथवा एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमनागमन करते समय मयूरपिच्छि से आलेखन करके ही मुनि को वर्तना चाहिए। 'चारित्रसार' में किसी 12 13 प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर 2001 0014
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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