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________________ ऐसी स्थिति में तप, त्याग, चारित्र और आत्मकल्याण की वीथी को प्रशस्त करनेवाले व्यवहारों एवं निश्चयों के कठिन - कठोर मार्ग पर त्यागी को अधिक से अधिक सशक्त और अकम्प पद रखने चाहिए। जिस आस्था से उसने पिच्छि- कमण्डलु लिये हैं, उस आस्था के लोकपूज्यरूप की संवर्द्धना में योग देना मुनि का धर्म है । यदि पिच्छि लेकर भी त्यागी के मन में आकिंचन्य का उदय नहीं हुआ और परिग्रहों पर तृष्णा बनी रही, तो निश्चय ही मयूरपंख के चन्द्रक उस आत्मवंचित पर हँसेंगे। इससे तो राग का मार्ग अच्छा था। उसी पर चलते तो एक निश्चित-मार्ग तो सम्मुख रहता। अब पाँव शिला पर हैं और मन कुसुम की मृदुल-पंखड़ियों पर यह द्वेधाचार श्लाघनीय नहीं । जिस भूमि पर खड़े होना है, उसी के होकर रहो । I पिच्छि-कमण्डलु धारण मात्र से मोक्ष मिल गया, ऐसा मानना मिथ्यात्व है। यदि ऐसा होता, तो पिच्छि का प्रथमधारक मयूर पहले मोक्ष गया होता। बहुत से अकिंचन जो धातुपात्रों के अभाव में कमण्डलुधारक हैं, प्रतिष्ठा को प्राप्त किये होते । परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता । यह तो त्यागी के लिए अनिवार्य आवश्यकता होने से विहित है और बन्धन है। उसके लिए तो परपदार्थ सभी रुकावटें हैं और शरीर तक बन्धन माना गया है। पिच्छि- कमण्डलु तो शरीर नहीं हैं और बाहर की वस्तुयें हैं। कदाचित् इसी आशंका से मुनियों को सावधान करने की आवश्यकता शास्त्रकारों ने अनुभव की है। एक ओर वे कहते हैं कि यदि 'बिना पिच्छि के सात कदम गमन कर लिया, तो कायोत्सर्ग करना होगा और दो कोस प्रमाण मार्ग पर बिना पिच्छि चल लिये, तो शुद्धि तथा उपवास दो-दो प्रायश्चित्त आवश्यक होंगे। 22 दूसरी ओर कहते हैं कि जो त्यागी पिच्छि तथा संस्तर (चटाई आदि) पर ममत्व करता है, तथा ममत्वपरिणाम से आर्त-रौद्रध्यान-परायण होता है, उसे क्या मोक्षसुख की प्राप्ति हो सकतीं. है? 'सरहपाद' ने भी पिच्छिव्यामोह पर कटाक्ष करते हुए लिखा है कि- 'पिच्छिग्रहणमात्र से मुक्ति मिलती होती, तो उसका प्रथम अधिकारी मयूर होना चाहिए और यदि उञ्छं- भोजन से मोक्ष होता, तो वन में विकीर्ण (स्वयं पतित) वृक्षपत्रावली खाकर जीवनयात्रा चलानेवाले पशुओं को वह होना चाहिए; किन्तु चमरी गाय, पिच्छिधर मयूर, उञ्छ और शिलभोजी वन्यजीवों को उद्दिष्ट उपकरणों से मोक्ष सम्भव नहीं । मोक्ष की उपलब्धि सम्यक्चारित्र द्वारा ही होती है। पिच्छि और कमण्डलु मुनिचर्या के सहायक उपकरण मात्र हैं और उपेक्षासंयम अवस्था में, अवधिज्ञानी होने पर अथवा तप्तर्द्धि होने पर उसकी आवश्यकता नहीं रहती । पिच्छि से विहित चर्यासौविध्यमात्र ग्राह्य है, यथेच्छ व्यवहार उसके द्वारा नहीं किया जा सकता। यथेच्छ व्यवहार तो प्रायश्चित्त का कारण बन जाता है। नीरोगदशा में यदि मुनि उसे मस्तक पर छायार्थ उत्तोलित करता है, छाती को आच्छादित करता है और मस्तक - आवरण बनाता है; तो उसे प्रायश्चित्त कल्याणक देना चाहिए। रुग्णदशा में दोष नहीं माना गया। तथापि वह अपवाद मार्ग है और यावच्छक्य मुनि को अपवाद और प्रायश्चित्तीय मार्ग नहीं लेना चाहिए। पिच्छि अप्रतिलेखन- गुण से युक्त है, किन्तु कमण्डलु में सम्मूर्च्छन- जीवों की 23 प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 2001 00 17
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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