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________________ इसप्रकार स्पष्ट है कि दिल्ली के इस प्राचीन गौरवक्षेत्र पर पंचवर्णी जैनध्वज फहराता रहा है। मनीषियों ने इस पंचवर्णी ध्वजा को 'महाध्वजा' की संज्ञा दी है, तथा शेष विविध ध्वजों को 'उपध्वज' कहा है। इस पंचवर्णी ध्वज के बीचोंबीच 'स्वस्तिक' का चिह्न बना होता है । यह 'स्वस्तिक' “ स्वस्तिं करोति इति स्वस्तिकः " की व्युत्पत्ति के अनुसार 'स्वस्ति' अर्थात् कल्याण को करनेवाला माना गया है। यह अपनी आत्मा की सत्ता ( अस्तित्व ) का सूचक भी इसी नाम से ज्ञापित होता है । इस शब्द को प्राचीन प्राकृत में 'सोत्थिगं' एवं 'सोथिअं' रूप मिलते हैं यह मंगलसूचक आशीर्वचन भी माना गया है, इसीलिए कवि शूद्रक - विरचित 'मृच्छकटिकम्' प्रकरण में विदूषक आशीर्वाद के रूप में वसंतसेना को "सोत्थि भोदिए" (दवी ! आपका कल्याण हो) कहता है 1 1 'स्वस्तिक' के निर्माण की विधि अत्यन्त वैज्ञानिक है। इसमें सर्वप्रथम नीचे से ऊपर की ओर एक खड़ी रेखा बनाते हैं, जो 'उत्पत्ति' या 'जन्म' की सूचिका है। इसके बाद को काटती हुई बाँये से दाँयी ओर आड़ी रेखा बनाते हैं, जो लेटी हुई अवस्था के समान 'मृत्यु' की प्रतीक है। इन रेखाओं का एक-दूसरे को बाधित करने का अभिप्राय यही है, कि जीव स्वयं ही स्वयं का बाधक है, अन्य द्रव्य उसका भला-बुरा नहीं करता है। अपने अज्ञान के कारण ही जीव जन्म-मरण कर रहा है। इन जन्म-मरण के चक्र में वह चार गतियों में परिभ्रमण करता है. - यह सूचित करने के लिए + चिह्न के चारों सिरो पर चारों दिशाओं में अनुक्रम (क्लॉक वाइज़) जानेवाली छोटी रेखायें या दण्ड बनाते हैं जो जन्म-मरण से चतुर्गति-परिभ्रमण को ज्ञापित करती हैं। फिर इन चारों दण्डों के किनारे तिरछे लघुदण्ड इसप्रकार बनाते हैं, जो कि चतुर्गति - परिभ्रमण से बाहर निकलने के पुरुषार्थ के प्रतीक हैं।' बीच के चार बिन्दु इसप्रकार हम रखते हैं । ये चार बिन्दु नहीं हैं, अपितु चार कूट - अंक हैं, जो कि क्रमश: 3, 24, 5, 4 के रूप में लिखे जाते हैं । इनका सूचक प्राकृत-प्रमाण निम्नानुसार है " रयणत्तयं च वंदे, चउवीसं जिणं च सदा वदे । पंचगुरूणं वदे, चारणचरणं सदा वंदे ।।" - ( इति समाधिभक्ति : 10, पृष्ठ 114 ) अर्थात् 3 का अंक रत्नत्रय, 24 का अंक चौबीस तीर्थंकरों का, 5 का अंक पंचपरमेष्ठी का एवं 4 का अंक चार- अनुयोगमयी जिनवाणी का सूचक है। इनकी भक्ति, वंदना, सान्निध्य एवं आश्रय से जीव क्रमश: द्रव्यकर्म, भावकर्म एवं नोकर्म इन तीन कर्मों से मुक्त होकर सिद्धशिला पर सिद्ध परमात्मा के रूप में विराजमान हो जाता है; - इस तथ्य को सूचित करने के लिए स्वस्तिक के ऊपर तीन बिन्दु, अर्धचन्द्र - कृति एवं मध्यबिन्दु इसप्रकार बनाया जाता है | इसप्रकार चतुर्गतिं परिभ्रमण - निवारण की प्रतीक यह मंगलाकृति प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 2001 009
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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