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________________ उस वैराग्य का द्योतक है, जिसपर कोई राग-रंग नहीं चढ़ सकता । कवि सूरदास ने लिखा भी है- "सूरदास की काली कमरिया पै चढ़े न दूजो रंग।" ___ कुछ विचारक इन पाँच वर्गों को क्रमश: अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचय और अपरिग्रह का प्रतीक भी मानते हैं। इन पाँचों वर्गों की समानुपातिक पट्टियों से जैनमहाध्वज निर्मित होता है। . ____इन पाँचों वर्गों के प्रतीकत्व के विषय में प्रकारान्तर से विवरण निम्नानुसार भी मिलता - है- "शान्तौ श्वेतं जये श्याम, भद्रे रक्तं भये हरित्।। पीतं धनादि संलाभे, पञ्चवर्णं तु सिद्धये ।।" . __ --(उमास्वामि-श्रावकाचार, 138, पृष्ठ 55 ) भावार्थ - श्वेत-वर्ण शान्ति का प्रतीक है। श्याम-वर्ण विजय का प्रतीक है; क्योंकि घने श्यामल-मेघ पृथ्वी के निवासियों में उत्साह का संचार करते हैं। रक्तवर्ण कल्याण का प्रतीक है। हरितवर्ण भयनाशक है। पीतवर्ण धनादि के लाभ का सूचक है। इसप्रकार उक्त पाँचों-वर्ण सिद्धि के कारण हैं। इस पंचवर्णी ध्वजा को विजय का प्रतीक भी कहा गया है विजय-पञ्चवर्णाभा पञ्चवर्णमिदं ध्वजम् ।" - (प्रतिष्ठातिलक, 5/10) राजधानी दिल्ली के जिस 'महरौली' क्षेत्र में राजा अनंगपाल के राज्य में पंचवर्णी ध्वजा के फहराने का उल्लेख महाकवि विबुध श्रीधर ने अपने पासणाहचरिउ' के पूर्वोक्त उल्लेख में किया है, वह स्थान पहिले 'मेरुवली' के रूप में जाना जाता है। इसी का क्रमश: परिवर्तित रूप आज महरौली' कहा जाता है। चूँकि यहाँ एक विशाल मेरु-मन्दिर था, जिसे विकृतपरिवर्तित करके 'कुतुबमीनार' का रूप दिया गया था। इसकी रचना जैन-परम्परा के 'सुदर्शन-मेरु' से बहुत मिलती है। इतिहास एवं पुरातत्त्व के साक्ष्यों से भी यह सिद्ध होता है कि यहाँ अनेकों जैन-मन्दिर थे, और यहाँ का राजवंश जिनधर्मानुयायी था। इस सम्बन्ध में निम्नांकित पद्य मननीय है "येनाराध्य विशुद्ध-धीरमतिना देवाधिदेवं जिनम् । सत्पुण्यं समुपार्जितं निजगुणैः संतोषिता बान्धवाः ।। जैनं चैत्यमकारि सुन्दरतरं जैनी प्रतिष्ठां तथा। स श्रीमान्विदित: सदैव विजयात्पृथ्वीतले नट्ठला।।" –(जैनग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह, भाग 2, पृष्ठ 85) अर्थ :- श्री अनंगपाल राजा के प्रधानमन्त्री श्री नट्ठल साहू ने तीर्थंकर वृषभदेव (आदिनाथ) का एक शिखरबद्ध मन्दिर बनवाया और मूर्ति की पञ्चकल्याण-प्रतिष्ठा कराकर उस मंदिर में विराजमान करवायी। (इस मंदिर पर पंचवर्णी महाध्वजा फहरा रही थी)। मंदिर में प्रवेश कर उन साहू नट्ठल ने मन से तीर्थंकर-प्रतिमा को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। वे साहू नट्ठल सदैव विजयी हों। 408 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
SR No.521367
Book TitlePrakrit Vidya 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size15 MB
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