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विदिशा के बड़े जैन मन्दिर के कुछ मूर्ति-लेख
-कुन्दन लाल जैन
'विदिशा' को यूरोपीय विद्वान् अपने उच्चारण की सुविधा के लिये 'भिलसा, भेलसा, भीलसा' आदि नामों का प्रयोग करते थे, पर स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् प्राचीनतम-ग्रन्थों में उल्लिखित विदिशा' नाम ही सुनिश्चित किया गया। प्रागैतिहासिक काल में यह भगवान् शीतलनाथ की जन्मभूमि भद्दिलपुर, भद्रावली आदि नामों से विख्यात रही है। गुप्तकाल के ऐतिहासिक प्रमाण यहाँ उपलब्ध होते हैं। उदयगिरि की कुछ जैन गुफायें तो गुप्तकाल से भी प्राचीन लगती हैं, अत: यह प्रदेश जैन-संस्कृति के प्राचीनतम-स्थलों में से एक है। पास ही सांची के बौद्ध-स्तूपों में जहाँ महात्मा बुद्ध के शिष्य सारिपुत्त और महामोग्गलायन के अस्थिअवशेष प्राप्त हुये हैं, के तुल्य प्राचीनता तो इस प्रदेश को प्राप्त होती ही है, अत: विदिशा के और अधिक प्राचीन इतिहास की विशेष चर्चा न करते हुये यहाँ के बड़े मंदिर की चर्चा करूँगा, जहाँ बहुत सी प्राचीन मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं, जिनके मूर्ति-लेख यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
विदिशा का प्राचीनतम जैन-मंदिर 'शीतलनाथ दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर' के नाम से विख्यात है, जो लगभग ढाई सौ वर्ष प्राचीन है। प्रारंभ में यह एक चैत्यालय के रूप में प्रतिष्ठित किया गया था, जिसकी पुष्टि समवसरण के दक्षिणद्वार के ऊपर छोटे आले में उत्कीर्णित आलेख से होती है। आलेख निम्नप्रकार है- "श्री आदि जिन सं0 1759 वर्षे बैसाख सुदी 10 शनीचर श्री मूलसंघे, सरस्वती गच्छे, बलात्कारगणे भट्टारक श्री पद्मकीर्ति देवास्तत्पदे भ० श्री सकलकीर्ति देवास्तत्पहे भ० श्री सुरेन्द्रकीर्ति देवास्तच्छिष्य ब्र० शांतिदासस्य सुतेन पं० भागीरथेन इदं चैत्यालयं कारापितं । वर्धतां जिनशासनं शुभं भवतु कल्याणमस्तु श्रीगुरुचरण त्रिकालवंदना प्रणमति । श्री श्री श्री।"
इसी तिथि का एक और आलेख वहाँ विद्यमान है जिससे कुछ और अधिक भवन निर्माण की सूचना मिलती है, जो निम्नप्रकार है:___"श्री आदिजिन प्रशस्तवंदनाख्याता: चतुर्विंशति सं० 1759 वर्षे बैसाख सुदी 10 शनीचर श्री मूलसंघे सरस्वती गच्छे कुंदकुदाचार्यान्वये भ० धर्मकीर्ति देवास्तत्पट्टे भ० श्री पद्मकीर्ति देवास्तत्पट्टे भ० जगत्कीर्ति देवास्तत्पट्टे भ० श्री सकलकीर्ति देवास्तत्प?
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001
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