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________________ पर हम यह कह सकते हैं कि परम्पराभेदमूलक गुण (नाग्न्य या आचेलक्य) के अतिरिक्त शेष समस्त मूलगुणों की विद्यमानता किसी न किसी रूप में दोनों जगह है। सन्दर्भ ग्रंथ-सूची 1. मनुस्मृति 6/89। महाभारत, शान्तिपर्व 23/5 1 3. आयारो, 3/4/741 4. भगवती आराधना, गाथा 11 । 5. वही, 11। 6. वही, 14। 7. संस्कृत-हिन्दी कोश (आप्टे), पृ० 346 । 8. प्रवचनसार, गाथा 202-7, तथा 214 एवं 242 । 9. मूलाचार, 1/2-31 10. समवायांगसूत्र, समवाय 27/11 11. मूलाचार, 1/4। 12. वही, 1/10। 13. वही, 1/16। 14. वही, 1/22 । 15. मूलाचार 9/34 (802)। 16. वृक्षमूल से तात्पर्य है 'हरित वनस्पति' । उसके तृण, छाल, पत्ते, कोंपल, कंदमूल, फल, पुष्प, बीज आदि सभी के घात का निषेध श्रमण-धर्म में है। 17. पंचाध्यायी, उत्तरार्द्ध, 743-44 । 18. (क) मूलाचार 10/27(920), (ख) मूलाचार, आचारवृत्ति टीका 10/27 । 19. पंचविंशतिका (पटानन्दि) 1/40 । 20. उत्तराध्ययनसूत्र 31/18, वृहवृत्ति, पत्र 6/6। 21. आवश्यक-हारिभद्रीया वृत्ति, पृ० 113।। 22. प्रवचनसार, 208। 23. भगवती आराधना में यत्र-तत्र सम्पूर्ण ग्रंथ में अनगार के मूलगुणों का विवेचन हुआ है। 24. भगवतीसूत्र, 7/2। 25. प्रकीर्णक - महाप्रत्याख्यान गाथा 12, प्रकाशक - आगम, अ०स०प्रा०सं० उदयपुर 1912 । 26. उत्तराध्ययनसूत्र 24/11 27. (क) भगवती आराधना 421, (ख) कल्पसूत्र में (i) सामायिक संगम । (ii) छेदोपस्थापनी संयम । (iii) निर्विश्यमान, (iv) निविष्ट कायिक, (v) जिन्नकल्प, (vi) स्थिविरकल्प स्थिति -इन 6 कल्पस्थिति का उल्लेख किया गया है। 28. दशवैकालिकसूत्र के पिण्डैषणा' एवं 'द्रुमपुष्पिका' नामक अध्ययन विशेष द्रष्टव्य हैं। 00 90 प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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