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________________ का सम्यक् उद्धाररूप है। ऐसा महामंत्र णमोकार' जिसके हृदय में स्थित है, संसार उसका क्या बिगाड़ सकता है? अर्थात् कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है। वे इसी तथ्य की पुष्टि करते हुए आगे लिखते हैं “एसो वि णमोक्कारो जेण कदो भत्तिणिब्भरमणेण। खविदूण कम्मरासी पत्ता मोक्खफलं ते वि।।" – (वही, 1/7) अर्थ :- जो भव्यजीव भक्ति से आपूरित हृदय से पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करते हैं, वे कर्मराशि का क्षय करके मोक्षरूपी फल को प्राप्त करते हैं। ___वस्तुत: सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से लेकर मोक्षावस्था पाने तक पंचपरमेष्ठियों को ही मुख्य बाह्य-निमित्तकारण प्ररूपित किया गया है। अतएव पंचपरमेष्ठियों को भक्तिपूर्वक नमस्कार का कर्मक्षयहेतुत्व-प्ररूपण युक्तिसंगत है। इन पंच-परमेष्ठियों का चिंतन व्यवहार धर्मध्यान' के रूप में करने की प्रेरणा 'द्रव्यसंग्रह' में आचार्य ने नेमिचंद्र सिद्धांतिदेव ने भलीभाँति की है। वे लिखते हैं _ "पणतीस-सोल-छप्पण-चद्-दुगमेगं च जवह झाएह । परमेट्ठि-वाचयाणं अण्णं च गुरूवदेसेण ।।" अर्थ :- पंच-परमेष्ठियों के वाचक पैंतीस अक्षरोंवाले (उपर्युक्त पूर्ण णमोकार-मंत्र), • सोलह अक्षरोंवाले (अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-साधु), छह अक्षरोंवाले (अरिहंत-सिद्ध) पाँच अक्षरोंवाले (अ-सि-आ-उ-सा), चार अक्षरोंवाले (अरिहंत), दो अक्षरोंवाले (सिद्ध), एकाक्षरी (ॐ) पदों को जपो और ध्यान करो। यह 'पदस्थ धर्मध्यान' हैं। ___इसे 'निश्चयधर्मध्यान की प्राप्ति का हेतु' कहा गया है। इसका अवलम्बन लेकर जीव आत्मरक्षित हो जाते हैं, इसीलिए पंचपरमेष्ठी को 'त्रिलोकरक्षक' जैसी संज्ञा दी गयी है। पंचपरमेष्ठियों के प्रति भक्ति-बहुमान को अभिव्यक्त करने के लिए अनेकों साधन अपनाये जाते थे। उदाहरणस्वरूप, दीवालों में एक साथ पंचपरमेष्ठियों की प्रतिमायें स्थापित की जाती थीं, इन्हें 'भित्तिकर्म' कहा गया है। आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं“कुड्डेसु अभेदघडिद-पंचलोकपाल-पडिमाओ भित्तिकम्माणि णाम ।" -(धवला, वग्गणाखंड, भाग 13, पृष्ठ 202) अर्थ :- दीवाल में अभिन्नरूप से (निरन्तर) बनायी गई पंचलोकपालों (पंचपरमेष्ठियों) की प्रतिमायें 'भित्तिकर्म' है। धर्मध्यान के लिए अनेकों साधन आचार्यों ने प्ररूपित किये हैं"चिंतंतो ससरूवं जिणबिंब अहवा अक्खरं परमं ।" - (स्वामी कार्तिकेय, कत्तिगेयाणुवेक्खा, 4) अर्थ :- आत्मस्वरूप का चितवन करना, जिनेन्द्र परमात्मा के बिंब पर उपयोग एकाग्र करना अथवा परमपदवाची अक्षर अविनाशी (ॐकार या णमोकार) का चिंतन, ध्यान प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001 007
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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