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"एसो पंच णमोक्कारो सव्व पावप्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं पढम होदि मंगलं ।।" अर्थ :- यह पंच नमस्कार (पंचपरमेष्ठियों को ‘णमोकार मंत्र' में किया गया नमस्कार) सभी पापों को नाश करनेवाला है तथा सभी मंगलों में प्रथम मंगल है।
इस ‘णमोकार मंत्र' में नमस्कृत पंचपरमेष्ठी 'अहिंसा के अवतार' के रूप में 'छक्खंडागमसुत्त' के रचयिता आचार्य भूतबलि के द्वारा प्ररूपित किये गये हैं
"साहूवज्झायरिए अरिहंते वंदिदूण सिद्धे वि। जो पंच-लोगवाले वॉच्छं बंधस्स सामित्तं ।।"
-(बंधसामित्तविचय, मंगलाचरण) अर्थ :- भावलिंगी साधु, उपाध्याय, आचार्य, अरिहंत और सिद्ध परमेष्ठी – इन पाँच लोकपालों (लोक का पालन, रक्षण करनेवालों) की वंदना करके मैं बंधस्वामित्व के विषय का वर्णन करते हैं।
चूँकि पंचपरमेष्ठियों में सबसे कनिष्ठ 'साधु परमेष्ठी' भी 'अहिंसामहाव्रत' के धनी होते हैं, समस्त त्रस और स्थावर जीवों की रक्षा करते है (अर्थात् उनके द्वारा कृत-कारित-अनुमोदना से किसी भी प्रकार के जीव का घात नहीं होता है); तब शेष चारों पद तो इनसे भी उच्चपद हैं; उनसे तो जीवघात का कार्य संभव ही नहीं है; इसीकारण से ये पंचपरमेष्ठी अहिंसा के अवतार होने के कारण लोकपाल' कहे जाते हैं।
वे 'मॅत्ती मे सव्वभूदेसु' की भावना से ओतप्रोत होकर प्राणीमात्र का हितचिंतन करनेवाले एवं मित्र के समान रक्षक/शुभचिंतक होते हैं। 'गद्यचिंतामणि' के मंगलाचरण में आचार्यदेव लिखते हैं
“त्रिलोकरक्षानिरतो जिनेश्वरः।" अर्थात् जिनेश्वर भगवान् तीनों लोकों की रक्षा करने में निरत रहते हैं।
वस्तुत: वीतरागी होने से ही उनके निमित्त से किसी को पीड़ा नहीं हो पाती है, क्योंकि परपीड़ा का कारण राग-द्वेष है। तथा परपीड़ाकारक भावों का लेश भी शेष नहीं रहने से उन्हें 'त्रिलोकरक्षा में निरत' विशेषण से विभूषित किया गया है। साथ ही उनके पावन-स्मरण से भी जीव पापभावों से बच जाते हैं, इसप्रकार पापों से जीवों की रक्षा करने के निमित्त होने के कारण भी उनकी यह संज्ञा सार्थक है। इस णमोकार मंत्र' को 'जिनशासन का सार' भी कहा गया है
"जिणसासणस्स सारो चोद्दस-पुव्वाण जो समुद्धारो। जस्स मणे णमोक्कारो संसारो तस्स किं कुणदि? ।।"
-(आ० वसुनंदि, तत्त्व विचार, 1/28, पृ0 171) अर्थ :- यह पंचनमस्कार-महामंत्र जिनशासन का सार है और चौदहपूर्व-परमागम
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001