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________________ करना चाहिये। जैनाचार्यों ने अन्त्य तीन परमेष्ठियों को श्रमण' संज्ञा प्रयुक्त की है"श्रमण-शब्द वाच्यानाचार्योपाध्याय साधूंश्च ।" -(आचार्य जयसेन, पवयणसार, गाथा 2 की टीका) तथा प्रथम दो परमेष्ठियों को 'जिन' कहा गया है “आचाराणां विघातेन कुदृष्टिनां च सम्पदाम् । धर्मग्लानिं परिप्राप्तमुच्छ्रियन्ते जिनोत्तमा।।” __ -(आचार्य रविषेण-पद्मपुराण) इन पाँचों परमेष्ठियों का स्वरूप अहिंसामय एवं अहिंसाप्रभावक होने से इन्हें ही मंगलस्वरूप, लोकोत्तम एवं एकमात्र शरणभूत भी 'चत्तारिदंडक' में कहा गया है। ये साक्षात्धर्मस्वरूप हैं, और धर्म अहिंसामय कहा गया है “धम्मो मंगलमुक्किठें अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं पणमंति, जस्स धम्मे सया मणो।।" -(क्रियाकलाप, पृष्ठ 260) अर्थ :- धर्म मंगलमय और उत्कृष्ट है, वह अहिंसारूप, संयममय एवं तप:प्रधान है। ऐसा धर्म जिसके मन में होता है, उसे देवता भी प्रणाम करते हैं। अहिंसाप्रभावक णमोकार महामंत्र' की अचिन्त्य महिमा एवं प्रभाव के कारण ही जैन-आम्नाय में बालक को जन्म, नामकरण आदि प्रसंगों पर उसे ‘णमोकार मंत्र' सुनाते हैं। शिक्षा ग्रहण के प्रसंग में भी उससे सर्वप्रथम णमोकार महामंत्र' का ही उच्चारण कराते हैं। जीवनभर शमन से पूर्व एवं जागने के बाद सर्वप्रथम इसी मंत्र का जाप करने का विधान है तथा मरण के समय भी णमोकार मंत्र' सुनकर देह छोड़ने को आदर्श बताया गया है। इसप्रकार शौरसेनीप्राकृतभाषानिबद्ध पंच-परमेष्ठी नमस्कारपरक इस ‘णमोकार महामंत्र' से जन्म से लेकर देहत्याग-पर्यन्त जहाँ हम पंचपरमेष्ठी की भक्ति-अनुराग से अहिंसक संस्कार प्राप्त करते हैं, वहीं शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग भी हम अपने जीवन में इसके माध्यम से जीवंत रखते हैं। बौद्धधर्म में आहारशुद्धि मद्यं मांसं मलाइंच न भक्षयेयं महामते ! बोधिसत्त्वैर्महासत्त्वैर्मावादिवज्जिनपुंगवैः । - (लंकावतारसूत्र, 1922 ई०) अर्थ :- हेमहामते! बौद्धमती, महाबौद्धमती, किसी को भी मांस, मदिरा, प्याज आदि नहीं खाना चाहिए, —ऐसा जिनेन्द्रों ने कहा है। ** 008 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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