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'समयपाहुड' बदलने का दु:साहस पूर्ण उपक्रम
-डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री
'ज्ञान' को मोक्षसाधन प्रतिपादित किया गया है, किंतु आधा-अधूरा ज्ञान किस तरह से स्व-पर-विघात की परिणति को प्रस्तुत करता है यह तथ्य सम्प्रति वीरसेवामंदिर' से प्रकाशित 'समयपाहुड' के संस्करण में भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है। विद्वान्-लेखक डॉ० देवेन्द्र कुमार जी शास्त्री ने इस विषय में व्यापक प्रमाणों के साथ दो टूक शब्दों में समस्त भ्रामक-अवधारणाओं का निराकरण किया है। यह आलेख यद्यपि एक-दो मासिक-पाक्षिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है; किंतु लेखक ने सर्वप्रथम यह 'प्राकृतविद्या' में प्रकाशनार्थ भेजा था और त्रैमासिकी होने के कारण इसका प्रकाशन-क्रम अपेक्षाकृत परवर्ती रहा। फिर भी लेखक की मूलभावना एवं लेख का विषय - इन दोनों दृष्टियों से यह आलेख जिज्ञासु पाठकों के मननार्थ यहाँ प्रस्तुत है।
–सम्पादक
ईसापूर्व प्रथम-शताब्दी के आचार्य कुन्दकुन्द ने केवली तथा श्रुतकेवली-कथित जिनागम को पाहुडों (साक्षात् तीर्थंकर की वाणी) के रूप में निबद्धकर श्रुतधराचार्य का महान् कार्य किया था। कुछ समय पूर्व 'वीर सेवा मन्दिर', नई दिल्ली से 'समयपाहुड' का एक संस्करण प्रकाशित हुआ है। इसके आमुख में श्री रूपचन्द कटारिया ने आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्र का यह कहकर विरोध किया है कि वे आगम से स्खलित हुए हैं।' उनके शब्दों में— “ऐसा प्रतीत होता है कि मूल-गाथाओं की छाया किसी अन्य विद्वान् के द्वारा की गई जिसके आधार पर श्री अमृतचन्द्राचार्य ने 'आत्मख्याति' नामक टीका लिखी। इसप्रकार संस्कृत-छाया के आधार पर टीका होने से अनेक-स्थलों पर मूलगाथा के अभिप्रायार्थ से स्खलन हो गया लगता है। यद्यपि श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने स्वयं इस समयपाहुड' को श्रुतकेवली-भणित कहा है; तथापि आगम के पूर्वापर का विरोध होने से पश्चाद्वर्ती टीकाकारों को कुन्दकुन्दाचार्य को सीमंधर-स्वामी के समवसरण में जाकर परम्परित-ज्ञान से अन्य अध्यात्मज्ञान प्राप्त करने की बात कहनी पड़ी।"
लेखक के उक्त तिरस्कारपूर्ण-लेखन से अहंभाव के प्रदर्शन की झलक मिलती है। उनके लिखने से ऐसा लगता है कि वर्तमान कलिकाल में वे ऐसे सर्वज्ञ हैं, जिनको सब पता है कि आचार्यों ने कहाँ पर और क्या गल्तियाँ की हैं। यह समयपाहुड' आचार्य कुन्दकुन्द की भूल
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001
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