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________________ ठीक करने का एक महान् उपक्रम है । लेखक ने इस बात की पुष्टि करते हुए लिखा है— “समयपाहुड की किसी भी गाथा में तथा कुन्दकुन्दाचार्य की किसी भी कृति में ‘व्यवहार’ को 'असत्यार्थ' नहीं कहा गया है और उस नय को 'जिनोपदिष्ट' बतलाया गया है। इससे प्रतिफलित होता है कि व्यवहारनय 'जिनोपदिष्ट' है और भगवान् जिनेन्द्रदेव के द्वारा कथित होने से सत्यार्थ है । ' इसप्रकार के काल्पनिक निष्कर्षों तथा मनगढन्त - ऊहापोह से भरित इस पुस्तक के लेखन तथा प्रकाशन में व्यर्थ ही समय, श्रम तथा धन का अपव्यय किया गया है । क्योंकि इस पुस्तक का मूल-प्रयोजन 'ववहारोऽभूयत्थो' या 'ववहारो अभूदत्थो' के स्थान पर 'ववहारो भूदत्थो’ पाठ बदलना है । उसकी वकालत करते हुए श्री कटारिया जी ने लिखा है-——“यहाँ विचारणीय यह है कि उक्त गाथा की जो संस्कृत - छाया की गई है, उसमें 'भूदत्थो' को ‘अभूदत्थो' कैसे कर दिया गया? और अमृतचन्द्र जैसे मेधावी आचार्य ने उसे स्वीकार करते हुए तदनुसार ही अपनी टीका में उसके अर्थ को कैसे अभिव्यक्त किया? जिससे अर्थ का अनर्थ हो गया और इसप्रकार विपरीतार्थ हो जाने पर परवर्ती समय में व्रत, तप, समिति, गुप्ति आदि को व्यवहार मानकर महत्त्वहीन कर दिया गया, जिससे हमारे चारित्र पर प्रबल कुठाराघात हुआ है। "3 इससे स्पष्ट है कि लेखक को 'व्यवहारनय' और 'निश्चयनय' के विषय में बड़ा भ्रम है। 'व्यवहार' शब्द 'वि+अव+हृ हरणे' धातु से निष्पन्न हुआ है । 'व्यवहारनय' जो वस्तु जैसी है, उसका लोपकर या अन्य को मिलाकर उसे उस रूप कहता है । इसलिये आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्र यह कहते हैं कि समस्त व्यवहारनय अभूतार्थ होने से अभूत (जो विद्यमान नहीं है ) अर्थ (पदार्थ) को प्रकट करता है, और केवल शुद्धनय ही भूतार्थ होने के कारण सहज, सत्यभूत ( जैसी वस्तु है) पदार्थ को कहता है । व्यवहारनय का अनुसरण क्यों नहीं करना चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं— ववहारो अभूदत्यो भूदत्यो देसिदो दु सुद्धणओ । भूदत्यमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो । । 11 ।। उक्त गाथा प्राचीनतम ताड़पत्रीय, हस्तलिखित एवं सर्वप्रथम कारंजा से प्रकाशित 'समयसार' के आधार पर लिखी गई है। इस गाथा का भावार्थ लिखते हुए श्री सहजानन्द जी वर्णी 'समयसार' की 'सप्तदशांगी' टीका में कहते हैं— भावार्थ :- . “यहाँ व्यवहारनय को 'अभूतार्थ' और 'शुद्धनय' को भूतार्थ कहा है। जो सहज अस्तित्वमय है, उसे ‘भूतार्थ' कहते हैं और जो सहज नहीं है, किन्तु औपाधिक है, उसे अभूतार्थ कहते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि शुद्धनय का विषय सहज अभेद एकाकाररूप नित्य-द्रव्य है, इसकी दृष्टि में भेद नहीं दीखता । इसलिये इसकी दृष्टि में वह अभूतार्थ ☐☐ 10 - प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर 2001
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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