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अविद्यमान-असत्यार्थ ही कहना चाहिये।" – (पृष्ठ 30) ___ यदि कटारिया जी वर्णी जी के लिखे हुए सम्पूर्ण भावार्थ को भलीभाँति समझ लेते, तो फिर पुस्तक लिखने की आवश्यकता नहीं होती। ____ आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चयनय को 'शुद्धनय' कहकर वर्णी जी के शब्दों में तीन सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर प्रतिपादन किया है। निश्चय ही (1) शुद्धनय का विषय (जो प्रासंगिक है) नयपक्ष से अतिक्रान्त अनुभाव्य-समयसार है। (2) समस्त शास्त्र तत्त्व के प्रतिपादक हैं, अत: सभी व्यवहाररूप हैं। (3) निश्चयनय परमार्थ ज्ञानरूप है। यही विषय गाथा 13 में इसप्रकार कहा गया है कि शुद्धनय से जानना ही समयक्त्व है। इस गाथा में 'भूदत्थो' या 'भूदत्थेणाभिगदा' में केवल 'भूतार्थ' कहा गया है, 'अभूतार्थ' की बात नहीं है। 14वीं गाथा में 'शुद्धनय' स्पष्ट किया गया है।
यह तो एक सामान्य-स्वाध्यायी भी समझता है कि व्यवहार-निश्चयनय एक-दूसरे के प्रतिकूल हैं। अत: यदि हम कटारिया जी की यह बात मान लें कि 'अभूदत्थो' के स्थान पर 'भूदत्थो' होना चाहिए, तो हमारा यह कहना है कि ऐसी कल्पना से 11वीं गाथा में “ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ" पंक्ति में एक साथ दो बार 'भूदत्थो' का प्रयोग करने पर गाथा की रचना व्यर्थ हो जाती है। क्योंकि यदि दोनों नय भूतार्थ हैं, जैसाकि कटारिया जी ने अर्थ किया है—“व्यवहार भूतार्थ है और शुद्धनय भी भूतार्थ उपदिष्ट है" - ऐसा कहने से दोनों नयों का विषय एक हो जायेगा, जो सम्भव नहीं है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने अपना निष्कर्ष 'समयपाहुड' की गाथा 414 में यह कहकर दिया है कि व्यवहारनय मुनि, श्रावक के भेद से दो प्रकार के लिंगों को मोक्षमार्ग कहता है और निश्चयनय किसी लिंग को मोक्षमार्ग नहीं कहता है। यथार्थ में निश्चयनय आत्माश्रित होने का कथन करता है और व्यवहारनय पराश्रित होने का प्रतिपादक होने से निषिद्ध' कहा गया है। परन्तु आचार्य कुन्दकुन्द का भावार्थ तथा प्रयोजन समझे बिना श्री रूपचन्द कटारिया ने अनेक स्थलों पर समयसार' के पाठ तथा अर्थ बदलने का दु:साहसपूर्ण कार्य किया है। इसे ही कहते हैं कि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। मूलगाथा है
एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण । _ णिच्छयणयासिदा पुण मणिणो पावंति णिव्वाणं ।। 272।। . श्री कटारिया जी के 'समयपाहुड' में यह गाथा 300 है, जिसमें 'णिच्छयणयेण' के स्थान पर जानबूझकर णिच्छयणये ण' का अर्थ, इसप्रकार निश्चयनय में व्यवहारनय का प्रतिषेध नहीं है, किया गया है। परन्तु आचार्य कुन्दकुन्द के विचारों से यह सर्वथा विरुद्ध है। क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द स्वयं गाथा 26-27 में कहते हैं कि व्यवहारनय तो आत्मा और शरीर को एक करता है और निश्चयनय एक द्रव्यसत्त्व का कथन करने से उन दोनों को भिन्न-भिन्न करता है। यही नहीं, गाथा 324 में उनका कथन है कि व्यवहारनय के वचनों से 'परद्रव्य
प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001
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