SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरा है' —ऐसा जो मानते हैं, वे अज्ञानी हैं; किन्तु परमाणुमात्र भी कुछ मेरा नहीं है' —ऐसा ज्ञानी जानते हैं। व्यवहारनय का प्रयोजन स्पष्ट करने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि “ये समस्त अध्यवसानादिभाव जीव के हैं— ऐसा जिनवरदेव ने जो उपदेश दिया है, वह व्यवहारनय का मत है (गाथा 46) वास्तव में जीव तो एक भावरूप है, अनेक भावोंवाला कहना व्यवहार है।" केवल पाठ और अर्थ ही नहीं बदले गये हैं, किन्तु अनेक-स्थलों पर शब्दों के अर्थ भी गलत किये गये हैं। जैसेकि—दरीसण' का अर्थ दिखाने को' किया गया है, किन्तु वास्तविक अर्थ दर्शन, विचारधारा या मत है। गाथा 27 में यह कहा गया था कि देह की स्तुति कर लेने पर अज्ञानी यह मानता है कि प्रभु की स्तुति हो गई है। किन्तु जो शरीर से सर्वथाभिन्न ज्ञानमात्र परमात्मा का अवलोकनकर कहता है कि शरीर के गुण केवली-भगवान् के नहीं हैं।' अत: वह स्तवन निश्चयनय में उपयुक्त नहीं है। गाथा 29, जो प्रकृत ‘समयपाहुड' में 34 है, उसमें तं णिच्छये ण जुज्जदि' के स्थान पर तं णिच्छयेण जुज्जदि ण' पाठ बदल दिया गया है। इसका अर्थ लिखा है—“जब उस स्तुति को निश्चय से जोड़ते हैं, तब शरीर के गुण केवली के नहीं होते हैं। जो (मुनि) केवली के गुणों की स्तुति करता है, वह वस्तुत: केवली की स्तुति करता है।" लेखक का अर्थ कितना भ्रामक है कि मुनि यदि गुण-स्तुति करे, तो वह स्तुति है; अन्य व्यक्ति गुण-कीर्तन करता है, तो वह स्तुति नहीं है। इसप्रकार 'समयपाहुड' का भ्रष्ट रूप देखकर आँखों में आँसू भर आते हैं। मुझे यह समझ में नहीं आता कि 'व्यवहार को सत्यार्थ' (अपनी मिथ्या-कल्पना) मानकर कटारिया जी इससे क्या कार्य सिद्ध करना चाहते हैं? आचार्य कुन्दकुन्द का कथन तो बहुत स्पष्ट है कि अभेद, अखण्ड वस्तु-स्वरूप के तत्त्वज्ञान से आत्मा का कल्याण, सम्यग्दर्शन होता है; किन्तु व्यवहार को उपादेय मानने से क्या लाभ होनेवाला है? ___समयपाहुड' की मूलभाषा में वर्तनी भी कहीं-कहीं अशुद्ध है। जैसेकि “जो इन्दिए जिणित्ता" – (गाथा 36) में 'इंदिए' पाठ होना चाहिए। इसीप्रकार गाथा 354 में 'जाणदि य बन्धमोक्खं' में बंधमोक्खं' लिखना चाहिये। गाथा 228 “धम्मात्थि अधम्मत्थी आयासं सुत्तमंगपुव्वेसु" पाठ गलत मुद्रित हुआ है, पूरी गाथा गलत छपी है। गाथा 229 में 'जाणगो' के स्थान पर 'जाणसो' छपा है, जो गलत है। गाथा 231 का भी पाठ गलत है। इसप्रकार की छोटी-मोटी अनेक भूलों से यह संस्करण भरा पड़ा है। श्री कटारिया जी का यह कथन उनके ही शब्दों में “इस गाथा की छाया के अनुसार ऐकान्तिक-अर्थ करने के कारण तथा मूलगाथा के प्रतिकूल होने से विवादास्पद रहा है। आचार्य जयसेन को भी उपर्युक्त अभूतार्थ अर्थ स्वीकार्य नहीं था।” परन्तु आचार्य जयसेन ने गाथा 13 कहकर उक्त गाथा के विषय में लिखा है-“ववहारो व्यवहारनय: अभूदत्थो अभूतार्थ: असत्यार्थो भवति।” कितना स्पष्ट है। वाला है? 00 12 प्राकृतविद्या+ जुलाई-सितम्बर '2001
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy