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________________ इसीप्रकार गाथा 15 “भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च -भूदत्थेण भूतार्थेन निश्चयनयेन शुद्धनयेन अभिगदा निर्णीता निश्चिता ज्ञाता:।" 'मूलाचार' पूर्वार्द्ध में अ0 5, गाथा 203 में भी यह गाथा ज्यों की त्यों है। उसका अर्थ भी माताजी ने यह लिखा है—“सत्यार्थरूप से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष —ये ही सम्यक्त्व हैं।" “द्वितीयव्याख्यानेन पुन: ववहारो अभूदत्यो व्यवहारोऽभूतार्थो भूदत्यो भूतार्थश्च देसिदो देशित: कथित: न केवलं व्यवहारो देशित: सुद्धणओ शुद्धनिश्चयोऽपि ।” कहकर व्यवहारनय और निश्चयनय के सामान्य चार भेदों का उल्लेख किया गया है। वास्तव में नय का स्वरूप तथा भेद-प्रभेद बराबर समझना चाहिये। कहीं की बात कहीं जोड़कर आगम का इसप्रकार से अवर्णवाद करना किसी भी प्रकार उचित नहीं है। बड़े नयचक्र में कहा गया है जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणदि एकवत्थुस्स । सो ववहारो भणिदो विवरीदो णिच्छयो होदि ।। 264।। ___ जो एक वस्तु के धर्मों में कथंचित्-भेद का उपचार करता है, उसे व्यवहारनय' कहते हैं ओर उससे विपरीत निश्चयनय' होता है। सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री के शब्दों में “जैसे आगम में वस्तुस्वरूप को जानने के लिये द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय हैं, वैसे ही अध्यात्म में आत्मा को जानने के लिए निश्चय और व्यवहारनय हैं। 'धर्मी' वस्तु और उसके 'धर्म' भिन्न-भिन्न नहीं हैं। वस्तु तो अनेक धर्मों का एक अखण्ड-पिण्ड है। जो नय उनमें भेद का उपचार करता है, वह व्यवहारनय है और जो ऐसा न करके वस्तु को उसके स्वाभाविकरूप में ग्रहण करता है, वह निश्चयनय है।" - (नयचक्र, पृ० 133) सभी नयों के मूल में दो भेद हैं- निश्चयनय (द्रव्यार्थिक) और व्यवहारनय (पर्यायार्थिक) (नयचक्र, गाथा 182)। इनके ही सात नय (नैगमादिक) और तीन उपनय (सद्भूत, असद्भूत और उपचरित) कहे गये हैं। द्रव्यार्थिकनय के दस भेद हैं। पर्यायार्थिकनय के छह भेद हैं। द्रव्यार्थिकनय के तीन नय शुद्धग्राही होने से भूतार्थ हैं। वे तीन हैंकर्मोपाधि-निरपेक्ष, सत्ताग्राहक और परमभावग्राही द्रव्यार्थिकनय । शेष नय व्यवहार से कहे गये हैं। अत: उनको 'भूतार्थ' नहीं कहा गया है। सभी नयचक्रों में जो भेद और उपचार से वस्तु व्यवहार करता है, वह 'व्यवहारनय' कहा गया है। 'समयसार' की गाथा 11 का भावार्थ लिखते हुये पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री कहते हैं – “आशय यह है कि भूतार्थ कहते हैंसत्यार्थ को। 'भूत' अर्थात् ‘पदार्थ में रहनेवाला', 'अर्थ' अर्थात् 'भाव', उसे जो प्रकाशित करता है, वह भूतार्थ है, सत्यवादी है। भूतार्थनय ही हमें यह बतलाता है कि जीव और कर्म का अनादिकाल से एकक्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध है।" सही बात यह है कि कटारिया जी व्यामोहपूर्वक व्यवहार का पक्ष सिरमौर सिद्ध करना चाहते हैं, किन्तु उनकी प्रवृत्ति में सम्यक्-व्यवहार नहीं है। क्योंकि असत्-कल्पनाओं की प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001 10 13
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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