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________________ निवृत्ति के लिए और रत्नत्रय की सिद्धि के लिये 'व्यवहार' आवश्यक है। उन्होंने व्यवहार का (चारित्र का नाम लेकर) भ्रान्तिमान पक्ष लेकर 'समयसार' के मूलरूप को भ्रष्ट तथा विकृत करने का दु:साहस पूर्ण प्रयत्न किया है। उनका यह कहना भी यथार्थ से परे है कि प्राकृत-साहित्य में पूर्वरूप का प्रयोग नहीं होता। वैसे यह आवश्यक नहीं है कि सभी रचनाओं में पूर्वरूप का प्रयोग नियमत: मिलता हो। किन्तु इतना निश्चित है कि 'ओ' के पश्चाद्वर्ती 'अ' का उच्चारण इस्व होता है। सम्भवत: उसके लिए ही जहाँ आवश्यक होता है, वहाँ पूर्वरूप के लिये 'अवग्रह' ('अ' के लिये ऽ) का प्रयोग होता है। जैसेकि आगासमेव रित्तं अवगाहणलक्खणं जदो भणिदं। सेसाणि पुणोऽखित्तं अवगाहणलक्खणाभावा।। -(वसुनन्दि श्रावकाचार 31) एक आकाशद्रव्य ही क्षेत्रवान् है, क्योंकि उसका 'अवगाहन' लक्षण कहा गया है। शेष पाँच द्रव्य क्षेत्रवान् नहीं हैं, क्योंकि उनमें 'अवगाहन' लक्षण नहीं पाया जाता है। यहाँ पर यदि अवग्रह का प्रयोग न हो, तो अर्थ का अनर्थ हो जायेगा। इसीप्रकार णिस्सेसकम्ममोक्खो मॉक्खो जिणसासणे समुद्दिट्ठो। तम्हि कदे जीवोऽयं अणहवदि अणंतयं सॉक्खं ।। 45।। यहाँ 'अवग्रह' का चिह्न (5) लगाना नितान्त आवश्यक है— भाषा, छन्द तथा अर्थ की स्पष्टता के लिये। गाथा संख्या 2 में कहा गया है—'सायारो णायारो' यहाँ पर भी 'ऽणायारो' (अनगार, जो सागार से विपरीतार्थक है) होना चाहिये। ___ गाथा-संख्या 300 में स्पष्टत: ‘पुट्ठो वाऽपुट्ठो वा' कहा गया है। यदि इसमें अवग्रह नहीं लगा होता, तो अर्थ स्पष्ट नहीं होता। अन्य ग्रन्थों से भी ऐसे प्रयोग लिये जा सकते हैं। गाथा 299 में आगत 'ऍक्कट्ठमेव' शब्द का अर्थ 'एकस्थ' किया गया है, जो गलत है। इसकी छाया 'एकार्थमेव' तथा शब्दार्थ 'एकार्थक' है। गाथा इसप्रकार है बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मदी य विण्णाणं। ऍक्कट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो।। 271 ।। कटारिया जी ने इस गाथा को इसतरह लिखा है बुद्धि ववसाओ वि य अज्झवसाणं मदी य विण्णाणं । एकट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो।। 272।। इस एक गाथा को लिखने में उन्होंने तीन भूलें की हैं। ऐसी गाथाओं को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि कटारियाजी को प्राकृत का क, ख, ग, घ भी नहीं आता है। प्राकृत में 'एक' शब्द के लिये ऍक्क', 'बुद्धि' के लिये 'बुद्धी' और 'पि' या 'अपि' के लिये वि' शब्दरूप 00 14 प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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