SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बनते हैं। उक्त तीनों संस्कृतनिष्ठ शब्दरूप हैं । प्राकृत का एक सामान्य-विद्यार्थी भी यह समझता है कि कर्ता-कारक एकवचन में संस्कृत का 'साधु', भिक्षु', मति', 'कति', 'बुद्धि' आदि शब्दों में अन्तिम हस्व-स्वर दीर्घ हो जाता है। अत: साहू, भिक्खू, मदी, कदी, बुद्धी आदि शब्दरूप सम्यक् हैं। पूरी पुस्तक को पढ़ने से ऐसा अनुभव होता है कि कटारिया जी ने एक बार भी सम्पूर्ण 'समयपाहुड' ग्रन्थ नहीं पढ़ा है; अन्यथा यह कथन नहीं करते और आचार्य अमृतचन्द्र के ऊपर कोप-वर्षा नहीं करते। उनके ही शब्दों में "हमारी दृष्टि में आचार्य अमृतचन्द्र ने उस उक्ति को आत्मसात् करते हुए 'ब्रह्म' के स्थान पर आत्मा तथा व्यवहार को लोकव्यवहाररूप 'माया' मानते हुए मिथ्या प्ररूपित किया हो तथा शंकराचार्य का जो 'अध्यास' मिथ्या है, उसी का अनुसरण करते हुए व्यवहारनय को मिथ्या निरूपित कर दिया। —यह कितना हास्यास्पद कथन है। समझ की बलिहारी है। उनको यह पता नहीं है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने शंकराचार्य के नहीं, आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार 'अध्यवसान' की मीमांसा की है। 'समयपाहुड' में गाथा सं० 218, 280, 284, 285, 287,289,296, 297,299 में 'अध्यवसान' की विशद-व्याख्या स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द ने की है। ___पं० पद्मचन्द्र शास्त्री के दो शब्द' पढ़कर यह स्पष्ट हो गया है कि 'समयार' को विवाद के घेरे में लाकर वे सदा अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे हैं। ववहारोऽभूयत्थो' को वे संस्कृत के व्याकरण-सूत्र के आधार पर यह कहकर 'भूयत्थो' सिद्ध करना चाहते हैं कि प्राकृत में अवग्रह नहीं होता। जिनको 'समय' शब्द का वास्तविक अर्थ नहीं पता है, वे उसका अर्थ 'आगम' ही करते रहेंगे; क्योंकि 'समय' के अनेक अर्थ होते हैं। ऐसे में मूल-लेखक ने किस अर्थ में उस शब्द का प्रयोग किया है, यह निश्चय करना होगा। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'समयो खलु णिम्मलो अप्पा' अर्थात् 'समय' का अर्थ 'निर्मल आत्मा' किया है। इसीप्रकार 'शुद्ध' का अर्थ कहा है ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो द् जो भावो । एवं भणंति सुद्धो णादो जो सो दु सो चेव।। 6।। -(समयसार, गाथा 6) 'ज्ञायकभाव' इसी अर्थ में 'शुद्ध' को ग्रहण किया जाना चाहिये। किन्तु पं० पद्मचन्द्र शास्त्री अपनी विद्वत्ता की शेखी में मिथ्या-कल्पना से लिख रहे हैं—“हमारी दृष्टि से 'शुद्धं प्रति नयतीति शुद्धनयः' ऐसा अर्थ प्रतीत होता है और समयपाहुडकर्ता को भी यही अर्थ इष्ट रहा है।" ____ पण्डित जी ! अभी तक आपने मुनियों के प्रति तीर चलाये थे। अब इन कल्पनाओं के तीर प्राचीन आचार्यों के प्रति भी इस अवस्था में चला रहे हैं। क्या यही विद्वत्ता है? जो प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001 00 15
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy