________________
ने एक-दूसरे को आत्मसात् कर लिया। वे दोनों एक-दूसरे में समवाय हो गयीं। अत: लिपि का नाम ही 'ब्राह्मी लिपि' हो गया। 'अभिधान राजेन्द्रकोष' में इस तथ्य का स्पष्ट संकेत मिलता है। ब्राह्मी ने अपनी विलक्षणता के कारण सम्माननीय स्थान बना लिया। वे अपने तपोबल से आर्यिका बनीं तथा आर्यिकाओं में श्रेष्ठ बन गयीं। वे अपनी साधना से जन-जन से पूजा की अधिकारिणी बन गयीं। ज्ञान में वे सरस्वती का पर्याय बन गयीं।
__ आचार्य हेमचन्द्र ने भी ब्राह्मी की गणना सरस्वती के नौ नामों में की है। 'प्रतिष्ठासारोद्धार' (6/33) में 'श्रुत-स्कन्ध' की स्थापना करके उसकी स्तुति का प्रावधान ब्राह्मी के न्यास-विधान को करके ब्राह्मी के प्रति आस्था और सम्मान को प्रकट किया गया है। 'श्रुतपञ्चमी' के दिन की जाने वाली पूजा वास्तव में ब्राह्मी की/ब्राह्मी लिपि की पूजा है। कालान्तर की एक रचना 'अनगारधर्मामृत' (4/151) में पं० आशाधर ने मैत्री, करुणा इत्यादि भावनाओं में तत्पर रहने के लिए ब्राह्मी को प्राप्त अक्षरावली आदिनाथ ऋषभदेव के श्रीमुख से प्राप्त हुई, अत: “सिद्धं नम:" मंगलाचरण से युक्त हुई।" 'महापुराण' में भी इस सन्दर्भ का एक पद्य प्राप्त होता है। यह लिपि अट्ठारह-प्रकारों से युक्त है। इन समस्त प्रकारों का ज्ञान ब्राह्मी को प्रदान किए जाने के कारण इनका नाम 'ब्राह्मी' हो गया। यहाँ पर वर्णित अट्ठारह-प्रकार की लिपियाँ वही हैं, जिनका उल्लेख 'पण्णवणासुत्त' तथा 'समवायांगसुत्त' में किया गया है। पण्णवणासुत्त' की प्राचीन हस्तलिखितपुस्तकों के आधार पर गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने अट्ठारह-प्रकार की लिपियों के नाम प्रस्तुत किए हैं— बंभी, जवणालि, दोसापुरिया, खरोट्टी, पुक्खरसारिया, भोगवइया, पहाराइया, उयअंतरिक्खिया, अक्खरपिट्ठिया, तेवणइया, गिण्णिहइया, अंकलिवि, गणितलिवि, गंधवलिवि, आदसलिवि, माहेसरी, दामिली और पोलिंदी। ये समस्त प्रकार की लिपियाँ आदिदेव ने ब्राह्मी को सिखाई थीं। आचार्य हेमचन्द्र के 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' तथा एक अन्य-रचना 'शत्रुञ्जयकाव्य' में भी इसीप्रकार का वर्णन उपलब्ध होता है। बौद्ध-ग्रन्थ ललितविस्तर' में चौंसठ लिपियों का उल्लेख प्राप्त होता है। यहाँ पर दिए गए नाम 'पण्णवणासुत्त' में प्रस्तुत नामों से मिलते जुलते हैं। ये समस्त लिपियाँ भारत में सर्वप्रचलित, सीमित क्षेत्रों में प्रचलित विदेशी-प्रान्तों में प्रचलित, जातीय एवं साम्प्रदायिक, सांकेतिक, शैली-परक तथा काल्पनिक लिपियाँ हैं। ये समस्त लिपियाँ ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों के व्यापक-प्रचलन के कारण इनकी शाखारूप में सीमित हो गयीं।
सन्दर्भग्रंथ-सूची 1. 'भारतीयों का लिपिज्ञान' (निबन्ध) : गंगा-पुरातत्त्वांक (1933) : (सं०) राहुल सांकृत्यायन। 2. "नाकरिष्यद्यदि ब्रह्मा लिखितं चक्षुरुत्तमम् ।
तत्रेयमस्य लोकस्य नामविष्यत् शुभा गतिः ।।” – (नारदस्मृति)
00 54
प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर '2001