SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चर्या का सम्यक् अवलोकन करें और भावसहित जिनेश्वरी-आज्ञा का पालन करते हुए कार्यपरमात्मा-स्वरूप हों, यही भावना है। सन्दर्भग्रंथ-सूची 1. संदर्भ क्र० 1,2,3,4 एवं 5 आचार्य वट्टकेर, 'मूलाचार' गाथा क्रमश: 202,984, 786,787 एवं 789-7941 2. संदर्भ कं0 6 आचार्य कुन्दकुन्द, बोधपाहुड' गाथा 42। 3. संदर्भ कं० 7, 8, 9, एवं 10 आचार्य वट्टकेर, 'मूलाचार' गाथा क्रमश: 795, 797, 796 एवं 7981 4. संदर्भ कं० 11 एवं 12, आचार्य शिवकोटी, 'भगवती आराधना' गाथा 235 एवं गाथा 235 की टीका पृष्ठ 104। 5. संदर्भ कं० 13, 14, 15, 16, 17 एवं 18 आचार्य वट्टकेर, 'मूलाचार' गाथा क्रमश: 11,302 303,799-800,801,810 एवं 811। 6. संदर्भ कं० 19 एवं 20 आचार्य शिवकोटी, 'भगवती आराधना' गाथा क्रमश: 147 एवं 158 । 7. संदर्भ कं० 21, 22, 23, 24, 25, 26 एवं 27 आचार्य वट्टकेर, 'मूलाचार' गाथा क्रमश: 150, ___151, 152, 154, 155,961 एवं 962 । 8. संदर्भ कं० 28 आचार्य कुंदकुंद, 'सूत्रपाहुड', गाथा 9। . 9. संदर्भ कं० 29 एवं 30 आचार्य वट्टकेर, 'मूलाचार' गाथा क्रमश: 145-147 एवं 149 । 10. संदर्भ कं0 31 जैनेन्द्र वर्णी, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग 1, पृ० 488।। 11. संदर्भ क्रं0 32,1 आचार्य सूर्यसागर, 'संयम प्रकाश' पूर्वार्द्ध, द्वितीय भाग। 'नेता' के लक्षण नेता विनीतो मधुरस्त्यागी दक्ष: प्रियंवदः । रक्तलोकः शुचिर्वाग्मी रूपवंश: स्थिरो युवा ।। बुद्धचुत्साह-स्मृति-प्रज्ञा-कला-मान-समन्वित:। शूरो दृढश्च तेजस्वी शास्त्रचक्षुश्च धार्मिकः ।।" – (दशरूपकम्, 2-1/2) अर्थ :- नेता विनयवान् होता है, मधुरभाषी होता है, त्यागवृत्ति वाला होता है, (अपना कार्य करने में) निपुण होता है, प्रियवचन बोलता है, लोकप्रिय होता है, पवित्र जीवनवाला | होता है, वाग्मी (वक्तृत्वकला में निष्णात) होता है, प्रतिष्ठित वंशवाला (अर्थात् जिनके वंश में कलंकित जीवन किसी का भी न हो) होता है, स्थिर चित्तवाला होता है, युवा (कर्मठ) होता है, बुद्धि-उत्साह-स्मृतिक्षमता-प्रज्ञा-कला-सम्मान से समन्वित होता है, शूरवीर होता है, दृढ़मनस्वी होता है, युवा (कर्मठ) होता है, बुद्धि-उत्साह-स्मृतिक्षमता- प्रज्ञा-कला-सम्मान | से समन्वित होता है, शूरवीर होता है, दृढमनस्वी होता है, तेजवान् होता है, शास्त्रचक्षुः (अर्थात् शास्त्रविरुद्ध कार्य कभी भी न करनेवाला) होता है और धर्मप्राण होता है। प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001 40 51
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy