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काँटे, ढूँढ, विरोधीजन, कुत्ता-गौ, आदि और म्लेच्छजनों से अथवा विष-अजीर्ण आदि दोषों से अपनेआप में विपत्तियाँ भी आती हैं। एकाकी रहनेवाले को जिन-आज्ञा का उल्लंघन, अनवस्था (अति प्रसंग), मिथ्यात्व का सेवन, आत्मनाश अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र की विराधना और संयम की विराधना अर्थात् विषयों की प्रवृत्ति एवं अविरत-परिणामों की वृद्धि, ये पाँच पापस्थान माने गये हैं। संक्षेप में जहाँ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर नहीं हैं, वहाँ पर रहना उचित नहीं है। एकाकी-विहारी पाप-श्रमण
'मूलाचार' के समयसाराधिकार के अनुसार जो श्रमण आचार्य-संघ को छोड़कर एकाकी-विहार करता है और उपदेश-ग्रहण नहीं करता, वह पाप-श्रमण' है। इसीप्रकार जो पहले शिष्यत्व न करके आचार्य होने की जल्दी करता है, वह 'ढोढाचार्य' है। वह मदोन्मत्त-हाथी के समान निरंकुश-भ्रमण करता है।" ____ 'सुत्तपाहुड' में भी जिन सूत्र (जिनाज्ञा) से च्युत होकर स्वच्छंदी-साधु को पापरूप एवं मिथ्यात्वी कहा है, भले ही वह सिंहवृत्तिरूप बहुत तपश्चरण करता हो और बड़ा-पदधारी या संघनायक हो। एकाकी विहार के दो अपवाद
जिनशासन में निम्न दो अपवादों में एकाकी-विहार एवं एकाकी-निवास स्वीकार किया है।
(i) अपने दीक्षा-गुरु से सम्पूर्ण श्रुतज्ञान ग्रहणकर जब कोई प्रतिभावान, गुण-सम्पन्न साधु अन्य-शास्त्रों के अध्ययन-हेतु किसी दूसरे संघ में जाना चाहता है, तब वह अपने गुरु से विनयपूर्वक आज्ञा लेकर दो, तीन या चार साधुओं-सहित संघ छोड़कर विहार कर सकता है।" . आगंतुक-साधुओं के साथ दूसरे संघ के आचार्य और साधुओं द्वारा किये जाने वाले व्यवहार का वर्णन गाथा 160 से लेकर 176 तक किया है, जो पठनीय है। षट्खण्डागम' के रचियता भगवत्स्वरूप आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि एकाकी-विहार के आद्य-प्रमाण हैं, जिन्होंने सिद्धान्तमर्मज्ञ श्रीमद् भगवत् धरसेनाचार्य के पास आकर सिद्धान्त-ज्ञान ग्रहण किया था। ___(ii) एकल-विहारी होने की जिनाज्ञा उन गुण-विशिष्ट साधुओं को है, जो तप, सूत्र, सत्त्व, एकत्वभाव, संहनन और धैर्य आदि गुणों से परिपूर्ण हैं। तात्पर्य यह है कि तपोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, आचारकुशल, व आगमकुशल गुण-विशिष्ट साधु को ही अकेले विहार करने की सम्मति है, ऐसी जिनाज्ञा है।" कुत्राप दान का फल
दुर्लभ जिनेश्वरी-दीक्षा धारण करके जिनाज्ञा का उल्लंघन कर मायाचार एवं आहारादि चार संज्ञाओं में अनुरक्त रहनेवाले, गृहस्थादिक कार्यों में संलग्न तथा सम्यक्त्व की विराधना आदि अवकार्य करनेवाले जिनलिंगी तथा कुपात्रों को दान देनेवाले गृहस्थ, कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं। अत: वीतरागपथ के सभी पथिक जिनेश्वरी-आज्ञा के दर्पण में अपने भावों एवं
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प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर '2001