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'भगवान् महावीर की समसामयिकता' पसन्द आया। 'नारी सम्मान की प्रतीक चन्दना', स्मृति के झरोखे से', 'तिलोयपण्णत्ति में भगवान् महावीर.....' भी रुचिकर लगे। सारी की सारी सामग्री पठनीय है। ऐसी पत्रिकायें निश्चित ही शोधार्थियों के लिए गागर में सागर' का काम करेगी। प्रत्येक अंक का संग्रह होना आवश्यक है। पत्रिका की साफ सुन्दर स्पष्ट छपाई भी पत्रिका को आकर्षक बनाने में अहम् भूमिका अदा कर रही है। पत्रिका के उत्तरोत्तर विकास हेतु हार्दिक शुभकामनाओं सहित।।
-सुनील जैन ‘संचय' शास्त्री, वाराणसी (उ०प्र०) ** © 'प्राकृतविद्या' का 'जनवरी-जून (संयुक्तांक) 2001' पढ़कर हृदय में अति-प्रमोद हुआ। इसमें निहित सामग्री शोध-पत्रकारिता के उच्चतम मानदण्डों के अनुरूप है, तथा भगवान् महावीर के साथ-साथ सती चन्दनबाला के जीवन एवं दर्शन पर भी उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करता है। 'अनेकांत और स्याद्वाद' तथा 'वैशाली और राजगृह' संबंधी लेख अनेकों ज्ञानवर्धक सूचनाओं से समन्वित हैं। तथा पूज्य आचार्यश्री का आलेख तो पूरे अंक में मंदिर पर कलश की भाँति अतिमहत्त्वपूर्ण और पूरे अंक की शोभा है। पुस्तक समीक्षा आदि स्तंभों से भी उपयोगी जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। कुशल संपादन के लिये बधाई।
-पं० प्रकाशचंद जैन, मैनपुरी (उ०प्र०) **
राज्यश्री और तप:श्री प्रेयसीयं तवैवास्तु राज्यश्रीर्या त्वयादृता। चोचितैषा मामयुष्मन् बन्धो न हि सतां मुदे ।। विषकण्टकजालीव त्याज्यैषा सर्वथापि नः। निष्कण्टका तपोलक्ष्मी स्वाधीनां कर्तुमिच्छताम् ।।
___(आ० जिनसेन, महापुराण, 36/97-99) अर्थ :- (बाहुबलि पाँचों प्रकार के युद्ध के बाद भरत से कहते हैं) हे आयुष्मान् भरत ! यह राज्यलक्ष्मी मेरे योग्य नहीं है; क्योंकि तुमने इसका अत्यन्त समादर किया है, अत: यह तुम्हारी प्रिय-पत्नी के तुल्य है। बन्धन की सामग्री सत्पुरुषों को आनंदप्रद नहीं होती है। मुझे तो अब यह विषैले काँटों के समूह से समन्वित प्रतीत हो रही है, अत: यह मुझे पूर्णत: त्याज्य है। मैं तो निष्कण्टक तप:श्री को अपने आधीन करने की आकांक्षा रखता हूँ। (अर्थात् अब मैं राज्यश्री को छोड़कर तप:श्री को अंगीकार करने जा रहा हूँ।)।
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सखेद सूचना महावीर-चंदना विशेषांक के प्रारंभ में दिये गये सूक्तिवचनों की आधार-सामग्री 'शोधादर्श' के महावीर-अंक पर आधारित थी। प्रूफ की गलती से यह उद्धरण उस अंक | में नहीं जा पाया, इसका हमें खेद है।
–सम्पादक
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प्राकृतविद्या- जुलाई-सितम्बर '2001