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________________ आयोजनों से ही संतुष्ट हो जाने की उपादेयता नहीं है; अपितु भगवान् महावीर द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट उस सिद्धान्त-चतुष्ट्य को अविलम्ब अपनाये जाने की नितान्त आवश्यकता है, जो 'आचरण' में 'अहिंसा' रूप हो तथा 'विचार', 'वाणी' और 'जीवन' में क्रमश: ‘अनेकान्त', 'स्याद्वाद' व 'अपरिग्रह' रूप हो। __ आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज का आलेख 'सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव' अत्यन्त सरल, सुबोध होने के साथ-साथ, विशेषरूप से मननीय भी है' एवं निश्चित ही, विशेषांक के यश एवं शोभा में चार चांद लगा रहा है। ___ अन्य लेखों में प्रमुख हैं- डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल द्वारा कलमबद्ध 'तिलोयपण्णत्ती में भगवान् महावीर और उनका सर्वोदयी दर्शन', श्री प्रभात कुमार दास द्वारा लिखित 'लोकतांत्रिक दृष्टि और भगवान् महावीर' तथा श्रीमती रंजना जैन का 'भगवान् महावीर के अनेकान्त का सामाजिक पक्ष ।' आपके तीनों आलेख वैशाली और राजगृह', 'महावीर-देशना के अनुपम रत्न : अनेकान्त एवं स्याद्वाद' तथा 'भगवान् महावीर और अहिंसा-दर्शन' में से प्रथम आलेख उचित, न्यायसंगत एवं अनुकरणीय लोकतांत्रिक व गणतंत्रीय राजव्यवस्था का शुभ-आह्वान है तथा द्वितीय एवं तृतीय आलेख अपने-अपने विषयानुरूप महावीर द्वारा उपदिष्ट-सिद्धान्तों एवं आचारों को उचितरूप से उजागर करने में सक्षम हुये हैं। पृ०कं० 123 पर 'आत्मधर्म-प्रकाशक महावीर' एवं 'लोकधर्म-प्रचार बुद्ध'-सम्बन्धी तुलनात्मक तथ्यतालिका एक दृष्टि में अवलोकनीय होते हुए भी विशिष्ट वैचारिक-गवेषणा का आधार है। रामधारी सिंह 'दिनकर' की 'वैशाली महानगर' कविता (द्रष्टव्य पृ०कं0 102) तथा 'महासती चन्दना'-सम्बन्धी समस्त आलेखादि भी सुन्दर हैं; किन्तु सबसे सुन्दर है— चीनी यात्री फाह्यान के यात्रा-विवरण' का वह अंश, जो 'प्राचीन भारत में अहिंसक-संस्कार' शीर्षक से 'मंगलाचरण' से ठीक पहिले पृ० कं0 4 पर उद्धृत किया गया है। ____ कुल मिलाकर पत्रिका के कुशल, सक्षम एवं प्रभावी अविरल सम्पादन-हेतु आप बधाई के पात्र हैं एवं निश्चितरूप से आपने स्व० पं० बलभद्र जी की विचारधारा को अविराम आगे बढ़ाया है। हमारी शुभकामनायें हैं कि आपके शुभ-सम्पादकत्व एवं लगनशीलता से पत्रिका जैन-सिद्धांतों एवं आचार-विचारों का मंगल उद्योत् जन-जन के मध्य, निरन्तर फैलाती रहे एवं अतिशय-यशस्वी बने। -निर्मल कुमार जैन 'निर्लिप्त', अलीगढ़ (उ०प्र०) ** 0 'प्राकृतविद्या' का 'जनवरी-जून (संयुक्तांक) 2001' का अंक देखने का अवसर मिला। आद्योपान्त पढ़कर ही छोड़ने का मन हुआ। पत्रिका में प्रकाशित सभी शोधपरक लेख प्रेरणास्पद, अनुकरणीय, मननीय, स्पृहणीय, संग्रहणीय व चिंतनीय है। पत्रिका के स्तुत्य प्रकाशन के लिए निश्चितरूप से सम्पादक व कुन्दकुन्द भारती प्रशंसा-योग्य है। सम्पादकीय प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '2001 म्बर '2001 00 105
SR No.521366
Book TitlePrakrit Vidya 2001 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2001
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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