________________
पुस्तक का नाम मूल लेखक
(पुस्तक-समीक्षा
(1)
: पज्जुण्णचरिउ (प्रद्युम्नचरित)
: महाकवि सिंह
सम्पादन एवं अनु० : प्रो० ( डॉ० ) विद्यावती जैन
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
:
संस्करण
: प्रथम, 2000 ई०
मूल्य
: 300/- (शास्त्राकार, पक्की बाइंडिंग, लगभग 512 पृष्ठ ) आज प्राचीन आचार्यों एवं मनीषियों की रचनाओं का अनुसन्धान करके उन पर प्रामाणिक सम्पादन, अनुवाद कार्य करके प्रकाशित कराने वाले ठोस विद्वानों एवं विदुषियों का प्राय: अभाव हो चला है । अपने नाम से पुस्तकें लिखकर समाज एवं प्रकाशन संस्थानों से छपाने का ही कार्य विद्वत्ता एवं प्रकाशन के नाम पर जैनसमाज में मुख्यता से हो रहा है। ऐसे में एक अनुभवी विदुषी की पवित्र लेखनी से सम्पादित एवं अनूदित होकर आनेवाली यह रचना निश्चय ही अत्यन्त बहुमान के योग्य है ।
इसका प्रकाशन विख्यात साहित्य - प्रकाशन संस्था 'भारतीय ज्ञानपीठ' ने किया है। प्रकाशन-संस्था के स्तर के अनुरूप मुद्रण व प्रकाशन नयनाभिराम एवं स्तरीय हैं । विदुषी संपादिका की अत्यंत शोधपूर्ण विशद एवं महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना भी चित्ताकर्षक हैं, जिसमें उच्चस्तरीय अनुसंधान एवं सम्पादन के आदर्श - मानदण्डों का परिपालन स्पष्टरूप से परिलक्षित है।
0094
विदुषी प्रो० (डॉ०) विद्यावती जैन वर्तमान जैन विदुषी - 1 - परम्परा में पाण्डुलिपियों का प्रामाणिक सम्पादन व अनुवाद करनेवाली संभवत: सर्वाधिक अनुभवी एवं सुपरिचित हस्ताक्षर हैं । उनकी लेखनी के संस्पर्श से प्रकाश में आने वाले प्राचीन अप्रकाशित साहित्य की एक यशस्वी परम्परा है, जिससे विद्वज्जगत् एवं जैनसमाज सुपरिचित है ।
अपभ्रंश भाषा में रचित महाकवि सिंह की इस विशालकाय रचना का विभिन्न पाण्डुलिपियों से प्रामाणिक सम्पादन एवं शब्द - अर्थ की सुसंगति से समन्वित अनुवाद प्रस्तुत होना इस संस्करण की श्रीवृद्धि करता है।
प्राकृतविद्या— अक्तूबर-दिसम्बर '2000