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________________ अद्वितीय चक्षु' कहते हैं। उनका मानना है कि 'समयसार से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है।' समयसार की सर्वप्रथम गाथा भारत की प्राचीन-परंपरा के अनुसार, मंगलाचरण की है। यह एक खूबसूरत रिवाज था, जो सभी प्राचीन भारतीय शास्त्रों में पाया जाता है। अपनी बात शुरू करने से पहले उस विषय में पारंगत पूर्व सिद्धों और ज्ञानीजनों को प्रणाम करके उनके आशीर्वाद की छाया में लेखक मार्गस्थ होते हैं। कुन्दकुन्दाचार्य भी उसी का निर्वाह करते हैं। वे यह भी कहते हैं कि "श्रुतकेवलियों (गणधर) द्वारा कथित समयपाहुड को मैं आप तक पहुँचा रहा हूँ।” आज के अहंकारी-युग में यह वक्तव्य चिंतन-मनन करने जैसा है। इतने महान् ग्रंथ की रचना को प्रारंभ करते हुए, जिसे दो हजार वर्षों का अंतराल धूमिल न कर सका, लेखक इतना विनम्र है कि खुद इस विशाल कार्य का कर्ता बनना नहीं चाहता। वे केवल इस ज्ञान के वाहक हैं। इसके पश्चात् वे दूसरी ही गाथा में समय की परिभाषा करते हैं जो कि पीछे हमने देखी। पूरे ग्रंथ के अंत में आचार्य चेतावनी और एक प्रलोभन भी देते हैं : जो इस ‘समयपाहुड' के वचनों को पढ़कर उसके अर्थ को अनुभव भी करेगा वह उत्तम सौख्य को प्राप्त होगा। बात स्पष्ट है, समयसार केवल दर्शन नहीं है, वह एक दृष्टि है, अनुभवजन्य कथन है, जो इसलिए कहा गया है, ताकि इसे पढ़कर दूसरे भी उसी अनुभव को उपलब्ध हों। वास्तव में समयसार को पुनरुज्जीवित करना हो, तो उसके शब्दों की प्राचीनता की धूल झाड़कर उन्हें सद्य:स्नात, तरोताजा बनाना आवश्यक है। कुन्दकुन्दाचार्य का ही प्रतीक लें, तो वे कहते हैं :- “स्वर्ण को कितना ही तपाओ, उसका स्वर्णत्व खोता नहीं”, उसीप्रकार कर्मों की आग में तपकर भी ज्ञानी अपना ज्ञान खोता नहीं है। ज्ञानी के शब्दों में भी उसके ज्ञान का स्वर्ण भरा हुआ है। उसे आग से क्या भय ? कुन्दकुन्दाचार्य के एक हजार साल बाद आचार्य अमृतचन्द्र देव ने 'अमृतख्याति' टीका लिखकर समयसार को समसामायिक बनाया। उनकी अभिव्यक्ति आधुनिक मनुष्य से अधिक निकट है, बजाए स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य के। आज फिर से एक हजार साल बाद उसे पुन:नवीन करने की आवश्यकता है। इस ग्रंथ को पढ़नेवाला कम से कम कुन्दकुन्दाचार्य का अंतिम संदेश ही समझ ले, तो समयसार समसामायिक हो सकेगा। “जो भव्य जीव इस ग्रंथ को वचनरूप से तत्त्वरूप से जानकर उसके अर्थ में स्थित होगा वह उत्तम सौख्य को प्राप्त होगा।" जैनियों द्वारा निर्मित की हुई यह श्रेष्ठतम पुस्तक है। कुन्दकुन्द बुद्धपुरुष थे। वे पुन: पैदा नहीं हो सकते। समयसार का अर्थ है :- सार-सूत्र। अगर कभी कुन्दकुन्द का समयसार तुम्हें मिला, तो उसे दाहिने हाथ में पकड़ना, बायें हाथ में नहीं। यह दाहिने हाथ की पुस्तक है- हर तरह से दाहिनी। ___-(ओशो टाइम्स, मार्च 2001, पृष्ठ 41-43 पर प्रकाशित डॉ० भारिल्ल-कृत समयसार अनुशीलन' की समीक्षा से साभार उद्धृत मननीय अंश) प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000 40 93
SR No.521364
Book TitlePrakrit Vidya 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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