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________________ एक मननीय समीक्षा दिगम्बर-जैन-संप्रदाय का महान् ग्रंथ 'समयसार' जैन-परंपरा के दिग्गज आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचा गया है। दो हजार वर्षों से आज तक दिगम्बर-साधु स्वयं को कुन्दकुन्दाचार्य की परंपरा का कहलाने में गौरव अनुभव करते हैं। आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व विक्रम की प्रथम शताब्दी में कौण्डकुन्दपुर (कर्नाटक) में इनका जन्म हुआ। माता-पिता ने इनका क्या नाम रखा, यह तो ज्ञात नहीं; लेकिन इनके कई नाम प्रचलित हैं— वक्रग्रीव, एलाचार्य, पद्मनन्दि, गृद्धपिच्छ इत्यादि। जो नाम लोकप्रिय हुआ- कुन्दकुन्द, उसका कारण यह होगा कि वे कोण्डकुन्दपुर के निवासी थे। कवि की काव्यात्मक दृष्टि से देखें, तो चन्द्रगिरि का एक शिलालेख कहता है:- कुन्द-पुष्प के समान धवल प्रभा होने से इन्हें यह नाम प्राप्त हुआ। विंध्यगिरि शिलालेख में उनका वर्णन और भी सुन्दर है :- “यतीश्वर कुन्दकुन्द मानों धूल से भरी धरती से चार अंगुल ऊपर चलते थे। क्योंकि वे अन्तर-बाह्य धूल से मुक्त थे।" चौदहवीं शताब्दी तक आचार्य कुन्दकुन्द की महिमा इतनी वृद्धिंगत हो गई थी कि उस समय के कवि वृन्दावनदास को कहना पड़ा कि “हुए हैं, न होहिंगे; मुनिन्द कुन्दकुन्द से।" __ भगवान् महावीर की श्रुत-परंपरा में गौतम गणधर के साथ केवल कुन्दकुन्दाचार्य का ही नाम आता है। अन्य सभी आचार्य 'आदि' शब्द में सम्मिलित किए जाते हैं। भगवान् महावीर की अचेलक-परंपरा में आचार्य कुन्दकुन्द का अवतरण उस समय हुआ जब उसे उनके जैसे तलस्पर्शी एवं प्रखर प्रशासक आचार्य की आवश्यकता थी। यह समय श्वेताम्बर-मत का आरंभ-काल ही था। उस समय बरती हुई किसी भी प्रकार की शिथिलता भगवान् महावीर के मूलमार्ग के लिए घातक सिद्ध हो सकती थी। आचार्य कुन्दकुन्द पर दो उत्तरदायित्व थे :- एक तो अध्यात्म-शास्त्र को व्यवस्थित लेखनरूप देना और दूसरा, शिथिल-आचार के विरुद्ध सशक्त आन्दोलन चलाना। दोनों ही कार्य उन्होंने सामर्थ्यपूर्वक किये। कुन्दकुन्दाचार्य की ग्रंथ-संपदा बड़ी है। उन्होंने लगभग आधा दर्जन ग्रंथ लिखे, जिनमें समयसार (जिसका मूल नाम है— समयपाहुड) सर्वाधिक प्रभावशाली रहा। कुन्दकन्दाचार्य के एक हजार वर्ष बाद समयसार' पर आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने संस्कृत में गंभीर टीका लिखी, जिसका नाम है 'आत्मख्याति' । समयसार का मर्म जानने के लिए आज इसे टीका का आश्रय लिया जाता है। समयसार की प्रशंसा करते हुए वे इसे 'जगत् का 00 92 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000
SR No.521364
Book TitlePrakrit Vidya 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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