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प्रतिक्रमण के भेद
प्रतिक्रमण के तीन दृष्टियों से भेद किये गये हैं—
1. पात्र की अपेक्षा, 2. काल की अपेक्षा, 3. कार्य या परिस्थिति की अपेक्षा । 1. पात्र की अपेक्षा प्रतिक्रमण के 2 मूल भेद हैं
(i) श्रावक प्रतिक्रमण, (ii) यति प्रतिक्रमण ।
(i) श्रावक प्रतिक्रमण — सद्गृहस्थ अथवा सन्यासोन्मुख श्रावक जो प्रतिक्रमण करता है, उसे 'श्रावक प्रतिक्रमण' कहते हैं ।
(ii) यति- प्रतिक्रमण - 28 मूलगुणों का पालन करनेवाले तपस्वी साधु या मुनियों के द्वारा तत्संबंधी दोषों के निराकरण के लिये जो प्रतिक्रमण किया जाता है, उसे 'यतिप्रतिक्रमण' कहते हैं ।
2. काल की अपेक्षा इसके निम्न भेद माने गये हैं
(i) दैवसिक प्रतिक्रमण
(ii) रात्रिक प्रतिक्रमण (iii) आष्टानिक प्रतिक्रमण (iv) पाक्षिक प्रतिक्रमण
(v) चातुर्मासिक प्रतिक्रमण
(vi) सांवत्सरिक प्रतिक्रमण
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जो दिन में किया जाता है ।
जो रात्रि में किया जाता है।
जो आठ दिन में किया जाता है।
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जो पन्द्रह दिन में शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष में किया जाता है ।
जो चार महीने में किया जाता है
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जो एक संवत्सर या वर्ष पूर्ण होने पर किया जाता है ।
(vii) युग प्रतिक्रमण
3. कार्य या परिस्थिति की अपेक्षा कई भेद हैं, जिनमें प्रमुख तीन हैं
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1. ईर्यापथ प्रतिक्रमण • जैन साधु हमेशा ईर्यापथशुद्धिपूर्वक ही गमन करते हैं; उस समय यदि कोई दोष लगता है, तो उसका निराकरण करने के लिये 'ईर्यापथ प्रतिक्रमण' किया जाता है ।
जो पाँच वर्ष में एक बार किया जाता है।
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2. भक्तपान प्रतिक्रमण • जो भोजन - पान आदि से संबंधित दोषों के निराकरण के लिये किया जाता है ।
3. ग्रामान्तर- गमन प्रतिक्रमण – यह एक गाँव से दूसरे गाँव जाने पर किया जाता है । 'भगवती आराधना' की टीका में प्रतिक्रमण के 6 अन्य भेद भी गिनाये गये हैं1. नाम प्रतिक्रमण, 2. स्थापना प्रतिक्रमण, 3. द्रव्य प्रतिक्रमण, 4. क्षेत्र प्रतिक्रमण, 5. काल प्रतिक्रमण, 6. भाव प्रतिक्रमण ।
“ब्राह्मी परब्रह्मसम्बन्धिनी सरस्वती वेदपुराणादिरूपा विद्या ।”
प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर '2000