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10. शांति भक्ति; 11. चैत्य भक्ति, 12. पंचमहागुरु भक्ति, 13. समाधि भक्ति।
इनके अतिरिक्त ईर्यापथशुद्धि, सामायिक दण्डक और थोस्सामि दण्डक—ये तीन पाठ और भी हैं। दैवसिक अथवा नैमित्तिक सर्वक्रियाओं में इन्हीं भक्तियों का आगे-पीछे करके पाठ किया जाता है। प्रतिक्रमण की परम्परा कब और क्यों?
'मूलाराधना' के अनुसार प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के शिष्य चंचल चित्तवाले एवं मूढबुद्धि थे। अत: उनकी चारित्र-शुद्धि के लिये प्रतिक्रमण की अनिवार्यता की गई। चूँकि प्रथम तीर्थंकर के काल में श्रावक और मुनिधर्म की विशेष प्ररूपणा नहीं थी। अत: उनके शिष्य धर्माचरण के विशेष ज्ञान से रहित होने के कारण 'ऋजु' अर्थात् सरल मनवाले होते हुये भी 'जड़' अर्थात् अज्ञानी थे; इसीकारण उनके काल में श्रावकों एवं श्रमणों को प्रतिदिन प्रतिक्रमण करना अनिवार्य था। जबकि अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के काल में कलिकाल का प्रभाव स्पष्ट होने लगा था, जिसके फलस्वरूप शिष्यों की बुद्धि में कुटिलता एवं जड़ता दोनों आने लगी थी। इसकारण उनसे धर्माचरण के पालन में अनेक प्रकार के दोष लगने लगे थे। इसलिये उन्हें भी प्रतिक्रमण करना आवश्यक कहा गया। शेष 22 तीर्थंकरों के काल में शिष्यों की प्रवृत्ति ऋविज्ञ' अर्थात् सरल परिणामी एवं आचरण विधि के जानकार होने से उनके शिष्यों को आचरणगत दोष न लगने के कारण प्रतिक्रमण की अनिवार्यता नहीं थी। —यह तथ्य 'मूल-आराधना' में स्पष्टरूप से व्यक्त किया गया है। प्रतिक्रमण के प्रसंग
'भावपाहुड' की टीका के अनुसार निम्नलिखित प्रसंगों में प्रतिक्रमण किया जाता है— छह इन्द्रिय तथा वचनादिक का दुष्प्रयोग आचार्यादि के अपना हाथ-पाँव आदि टकरा जाना, व्रत-समिति में छोटे-छोटे दोष लग जाना, पैशुन्य तथा कलह आदि करना, वैयावृत्त्य तथा स्वाध्यायादि में प्रमाद करना, गोचरी को जाते हुए लिंगोत्थान हो जाना, तथा अन्य के साथ संक्लेश करनेवाली क्रियाओं के होने पर प्रतिक्रमण करना चाहिये। यह प्रायश्चित्त प्रात:काल और सायंकाल तथा भोजनादि के समय होता है। प्रतिक्रमण की विधि
“कादूण य किदिकम्मं पडिलेहिय अंजलीकरण सुद्धो।
आलोचिज्ज सुविहिदो गौरव-माणं मोत्तूणं ।।" अर्थ:- विनयकर्म करके शरीर, आसन को पीछी व नेत्र को शुद्ध करके अंजलीक्रिया में शुद्ध हुआ निर्मल प्रवृत्तिवाला साधु ऋद्धि आदि गौरव तथा जाति आदि के मान को छोड़कर गुरु से अपने अपराधों का निवेदन करे।
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000
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