SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दष्टियों से भी अधिक महत्त्व है। संपूर्ण भारतीय संस्कृति की मूलदृष्टि इसमें परिलक्षित होती है, जो व्यक्ति को भोग से विराग की ओर, संग्रह से त्याग की ओर तथा प्रमाद से सजग ज्ञान की ओर अग्रसरित करने का मूल उद्देश्य लेकर प्रवर्तित है तथा मोक्ष' नामक परम पुरुषार्थ की सिद्धि जिसका परम लक्ष्य है। द्वादशांगी द्रव्यश्रुत के बारहवें अंग के अवान्तर भेदों चौदह पूर्यों में चतुर्थ अंगबाह्य' का नाम 'प्रतिक्रमण' कहा गया है, किन्तु यहाँ विवक्षित 'प्रतिक्रमण' कुछ भिन्न अर्थ में है। व्यक्ति को अपनी जीवनयात्रा में कषायवश पद-पद पर अंतरंग व बाह्य दोष लगा करते हैं, जिनका शोधन एक श्रेयोमार्गी के लिये आवश्यक है। भूतकाल में जो दोष लगे हैं, उनके शोधनार्थ प्रायश्चित्त, पश्चात्ताप एवं गुरु के समक्ष अपनी निंदा-गर्दा करना 'प्रतिक्रमण' कहलाता है। प्रतिक्रमण की व्युत्पत्ति "प्रतिक्रम्यते प्रमादकृत-दैवसिकादिदोषो निराक्रियते अनेनेति प्रतिक्रमणं" - प्रमाद के द्वारा किये दोषों का जिसके द्वारा निराकरण किया जाता है, उसे 'प्रतिक्रमण' कहते हैं। परिभाषा "गुरूणमालोचणाए विना ससंवेण-णिव्वेयस्स 'पुणो ण करेमि' त्ति जमवराहादो णियत्तणं पडिक्कमणं णाम पायच्छित्तं।" अर्थ:- गुरुओं के सामने आलोचना किये बिना संवेग' और निर्वेद' से युक्त साधु का “फिर कभी ऐसा न करूँगा” —यह कहकर अपने अपराध से निवृत्त होना 'प्रतिक्रमण' नाम का प्रायश्चित्त है। __ आचार्य अकलंकदेव ने इसे संक्षेप में निम्नानुसार कहा है—“अतीतदोषनिवर्तनं प्रतिक्रमणं" अर्थात् अतीतकाल में किये गये दोषों की निवृत्ति करना ही प्रतिक्रमण' है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'प्रतिक्रमण' को वचनमय बताया है तथा इसे 'स्वाध्याय' भी कहा है। ‘कृति-कर्म' में जो छह आवश्यक क्रियायें कहीं गई हैं— सामायिक, वंदना, स्तुति, स्वाध्याय, प्रत्याख्यान एवं कायोत्सर्ग; इनमें 'कायोत्सर्ग' को 'प्रतिक्रमण' भी कहा गया है। तथा इसका अर्थ कुछ विशिष्ट भक्तियों के पादों का विशेष क्रम से उच्चारण करना माना गया है। भक्तियों के पाठ भक्तियों के कुल 13 पाठ उपलब्ध होते हैं 1. सिद्ध भक्ति, 2. श्रुत भक्ति, 3. चारित्र भक्ति, 4. योग भक्ति, 5. आचार्य भक्ति, 6. निर्वाण भक्ति, 7. नन्दीश्वर भक्ति, 8. वीर भक्ति, 9. चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति, 0060 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर 2000
SR No.521364
Book TitlePrakrit Vidya 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy