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यह चित्र पुन: जड़ भरत की एक और जन्मकथा का दृश्य है। इसमें महादेवन ने जिसे बकरी समझा है, वह वास्तव में मृग-शावक है। कथा के अनुसार, सिंह के भय से एक गर्भिणी मृगी, अपने गर्भ के शिशु को त्याग, जल में गिरकर मर जाती है। और उस नन्हें मृग शावक को भरत मुनि पाल लेते हैं। मगर उसके मोह में पड़ने के कारण उन्हें पुन: एक ब्राह्मण के कुल में जन्म लेना पड़ता है। उसी जन्म की एक कथा को दूसरे फलक पर चित्रित किया गया है। 6. ऋषभदेव को समर्पित सत-आसन", मोहर क्रमांक 2430,107811 परमात्म या
प्रमातृ या परम नत/व्रात्य सत्य धर्म/धारणा के प्रतिपादक अथवा परम (महामहिम) नत (है)। . मोहर पर दाँयी ओर, क्रम से उकेरे गये हैंअ. माथे पर सींग युक्त, पीपल की डालों के बीच एक खड़ी मानवाकृति। ब. एक कम ऊँचा आसन जिस पर कुछ रखा प्रतीत होता है। स. माथे पर सींग युक्त एक नत मस्तक बैठी हुई मानवाकृति। द. एक मेढ़ा य. नीचे की ओर पंक्तिबद्ध, पोशाक पहने सात लोग। 21 सत/सुत आसन, सत्य का आसन/सिंहासन/सोम का आसन। 33 भधारण करना।
यहाँ पहली पंक्ति नत मस्तक व्यक्तित्व का वर्णन हो सकता है, मगर एक सम्भावना नतमस्तक व्यक्ति द्वारा पीपल की डाली में खड़े व्यक्ति को सम्बोधन भी हो सकता हैपरमात्मा/परम सत्य के उद्घोषक? परम-व्रात्य ! सत्य/सोम/राज्य के सिंहासन का आरोहण करें।
जैन-पुराण में वर्णन है कि सन्यास धारण करने के बाद ऋषभदेव छ: माह तक कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े रहे। फिर उसके बाद छ: माह तक प्रतिमायोग में भोजन या आहार-प्राप्ति के निमित्त घूमते रहे। इस बीच तीर्थंकर परम्परा से अनभिज्ञ सब राजे, महाराजे (भरत चक्रवर्ती सहित) उन्हें तरह-तरह के उपहार व राजसिंहासन इत्यादि अर्पित करते थे।" इसीप्रकार 'अथर्ववेद' के 'व्रात्य सूक्त' में वर्णन आता है कि व्रात्य (ऋषभदेव/जैनमुनि/ वातरशन मुनि?) को एक वर्ष तक खड़े पाकर देव उनसे खड़े रहने का कारण पूछते हैं और जवाब में व्रात्य उन्हें आसन देने को कहते हैं, जिसे देव' उपलब्ध कराते हैं।"
दोनों ही कथाओं में, एक वर्ष की अवधि, के उपरान्त 'आसन' प्रदान करना उल्लेखित है। इसमें यदि अथर्ववेद की कथा के देव' को 'शासक' स्वीकार कर लिया जाये, तो मोहर पर के चित्रांकन को समझना बहुत हद तक सरल हो जाता है। इससे, एक और सम्भावित कथा" के स्वीकार की सम्भावनायें भी बढ़ जाती हैं, जिसमें सम्भवत: चक्रवर्ती
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2000