SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्यभामा, रुक्मिणी आदि का तपश्चरण एवं स्वर्ग-प्राप्ति तथा प्रद्युम्न का मोक्षगमन । रचनाकाल - निर्णय 1 : 'पज्जुण्णचरिउ' में कवि के जन्म - काल या लेखन - काल के विषय में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है । जहाँ तक हमारा अध्ययन है, परवर्त्ती अन्य कवियों ने भी उसका स्मरण नहीं किया । अत: उसके जन्म या लेखनकाल-विषयक विचार करने के लिये निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सके हैं। किन्तु कवि ने अपनी प्रशस्ति में अपने भट्टारक - गुरु एवं कुछ राजाओं के उल्लेख अवश्य किये हैं, जिनसे विदित होता है कि उसका समय 12वीं - 13वीं सदी रहा होगा। इसके समर्थन में निम्न तर्क प्रस्तुत किये जा सकते हैं (1) 'पज्जुण्णचरिउ' की प्राचीनतम प्रतिलिपि आमेर के शास्त्र - भण्डार में सुरक्षित है, जिसका प्रतिलिपि काल वि०सं० 1553 है । अत: इसकी रचना इसके पूर्व हो चुकी थी (2) कवि ने 'गज्जणदेश' अर्थात् 'गजनी' का उल्लेख किया है। यह ध्यातव्य है कि महमूद गजनवी ने भारत में जिस प्रकार भयानक आक्रमण किए थे तथा सोमनाथ में जो विनाश-लीला मचाई थी, भारत और विशेष रूप से गुजरात उसे कभी भुला नहीं सकता । परवर्ती कालों में गजनी की उस विनाश- लीला की चर्चा इतनी अधिक रही कि कवि ने भावाभिभूत होकर अन्योक्तियों के माध्यम से अथवा प्रद्युम्न एवं भानु, प्रद्युम्न एवं कृष्ण आदि के माध्यम से उसकी झलक 'पज्जुण्णचरिउ' में प्रदर्शित की है। युद्ध में प्रयुक्त कुछ शस्त्रोपकरणों के उल्लेखों में भी उसके साथ समानता है। उक्त महमूद गजनवी का समय वि०सं० 1142 के आसपास है । (3) कवि ने अर्णोराज, बल्लाल एवं भुल्लण जैसे शासकों के नामोल्लेख किए हैं। बड़नगर की वि०सं० 1207 की एक प्रशस्ति के अनुसार कुमारपाल ने अपने राजमहल के द्वार पर उक्त मृत बल्लाल का कटा मस्तक लटका दिया था । कुमारपाल का समय वि०सं० 1143 से 1173 के मध्य है । अत: उक्त तथ्यों के आधार पर 'पज्जुण्णचरिउ' का रचनाकाल 12वीं सदी का अन्तिम चरण या 13वीं सदी (विक्रमी ) का प्रारम्भिक चरण सिद्ध होता है । मूल प्रणेता कौन? `पज्जुण्णचरिउ' की आद्य-प्रशस्ति से स्पष्ट विदित होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का मूलकर्त्ता महाकवि सिद्ध है; किन्तु इसकी अन्त्य - प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि किन्हीं प्राकृतिक उपद्रवों के कारण वह रचना विनष्ट अर्थात् गलित हो चुकी थी । अत: अपने गुरु मलधारी देव अमृतचन्द्र के आदेश से महाकवि सिंह ने उसका छायाश्रित उद्धार किया था । उद्धारक महाकवि सिंह ने अन्त्य - प्रशस्ति में स्वयं लिखा है “एक दिन गुरु ( मलधारीदेव अमृतचन्द्र) ने कहा “है छप्पय - कविराज ! ( अर्थात् षट्पदियों के प्रणयन में दक्ष हे कविराज), प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर '2000 0043
SR No.521364
Book TitlePrakrit Vidya 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy